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करेंगे?
भीड़ जो करती आ रही है, लोकलाज के लिये मूढ़ जन उसे दुहराते जाते हैं और इसे धर्म की संज्ञा देते हैं। भीतर एक भय बना है। सम्यक्त्व का पथ निर्भीक पुरुषों का पथ है।
जैनदर्शन में मानव को देवताओं से श्रेष्ठ स्थान दिया है, क्योंकि जो विषय-विकार मानव में हैं, वे देवों में भी होते हैं, कदाचित् अधिक ही हों। जैनदर्शन में विषयानुरागी देव भी आराध्य नहीं है, चाहे वह कोई भी देव हों। इस प्रकार के देवता की उपासना करना “देवमूढ़ता" है। वह देव तो तुम्हारा कुछ भी कल्याण कर ही नहीं सकता। यदि करने में सक्षम भी हों तो अनेकजन उसकी उपासना कर रहे हैं, वह किस-किसकी इच्छा पूर्ण करेगा?
धन, पद, जलवृष्टि, बीमारी आदि के निवारण हेतु नदी, वृक्ष, इन्द्र आदि अनेक प्रकार के देवी-देवताओं की पूजा चलती है। देवी-देवता स्वर्ग में मनुष्य से अधिक सुखी होंगे, लेकिन आकांक्षा रहित नहीं हैं। ध्यान रखना, जो स्वयं आकांक्षारहित नहीं है, वह दूसरों की आकांक्षा की पूर्ति का हेतु नहीं बन सकता।
तीन आदमी थे। एक दूसरे के दुश्मन, घोर विरोधी। तीनों अपनी मनोकामना पूरी करने के लिये एक देव की आराधना करने लगे। कड़ी साधना की। देव उनके तप से प्रसन्न हो गया। देव पहले के पास प्रगट हुआ, कहा- "मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ | माँगो, क्या वर चाहिये?" वह बोला- "बस, इतनी कृपा करें कि सामने मेरा विरोधी रहता है, उसका विनाश कर दें।" देव अब दूसरे के पास पहुँचे, उससे वर माँगने को कहा। वह बोला- "भगवन्! मेरी तो एक ही कामना है कि मेरे सामने जो रहता है, उसका अंत हो जाए।" देव अब तीसरे के पास गया, उससे भी वर माँगने को कहा। वह बोला, "बस, भगवन्! उन दोनों की इच्छायें पूरी कर
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