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लोकमूढ़ता- इस लोक में धर्म के नाम पर बहुत-सी रूढ़ियाँ चली आ रही हैं, जिनका धर्म से किंचित् भी संबंध नहीं है। जैसे जल में स्नान करने से सारे पाप धुल जायेंगे। कैसी विचित्र बात है? आत्मा अमूर्त है, रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है और जल मूर्त पदार्थ है, अब आत्मा को जल से कैसे धोया जा सकता है? लोग कहते हैं- "यह जल बहुत पवित्र है। इसमें स्नान करने से पवित्र हो जायेंगे, सारे पाप धुल जायेंगे।" यदि ऐसा है, तो उस पानी में रहनेवाले समस्त जीवों के पाप तो बचना ही नहीं चाहिये ? उन्हें निष्पाप हो जाना चाहिए ? तो फिर उन्हें भगवान् की मूर्तियों के स्थान पर वेदियों पर बिठा देना चाहिये? कैसी मूढदृष्टि है यह? ___शीतल शुद्ध जल में स्नान करने से शरीर का ताप तो मिट सकता है, शरीर का मैल दूर हो सकता है, किन्तु आत्मा में निर्मलता तो ज्ञानरूपी जल में स्नान से ही आयेगी। कुछ लोग यहाँ शंका करते हैं- तो क्या स्नान बन्द कर दें?' जल में स्नान बन्द करने को नहीं कहा जा रहा है। गृहस्थ के लिये शरीर की बाह्य स्वच्छता के लिये स्नान करना जरूरी है, पर जल में स्नान करने से धर्म होता है, पाप धुल जाते हैं, यह मानना छोड़ दो। यह मूढ़ता है, अज्ञानता है। सागर-स्नान, सरिता-सरोवर-स्नान, कुंड-स्नान और भी न जाने कितनी और कैसी पूजा की रूढ़ियाँ बनी हुई हैं। ये लोकमूढ़ता है।
कोई आदमी जब आर्थिक संकट में होता है, परिवार में कोई असाध य बीमारी से परेशान होता है या अन्य कोई विषम परिस्थिति आ जाती है, तब इससे छुटकारा पाने वह "येन-केन-प्रकारेण" कहीं भी जाता है। जहाँ भी बता दिया जाये, भटकता है। वीतराग भगवान् के मंदिर जाकर भी लोग कामना करते हैं- 'भगवन्! अमुक कार्य यदि हो जायेगा, तो सोने का छत्र चढ़ायेंगे। अमुक पर चाँदी का छत्र चढ़ायेंगे।' यह तो रिश्वत देना है। क्या कोई सच्चा ईमानदार अधिकारी रिश्वत लेता है? भगवान जो तीनलोक के स्वामी हैं, उच्चतम अधिकारी हैं, वे कैसे रिश्वत स्वीकार
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