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भूमि में बो दिया जाता है तो वह वृद्धि को प्राप्त होता है, नये बीज को जन्म देता है, उसी प्रकार आकांक्षा नये पाप को जन्म देती है, जिससे इसकी सन्तति चलती रहती है। सांसारिक पुण्य के उदय से नारायण, प्रतिनारायण आदि पद की प्राप्ति अवश्य हो सकती है, पर नरकादि का दुःख अवश्यमेव भोगना पड़ता है। पाप से मिली संपदा पाप को ही बढ़ाती है। इसलिए निष्कांक्षित गुणधारी कर्माधीन सुख को अन्त में दुःखकारी पाप-बीजरूप मानकर इस पर श्रद्धा नहीं करता है। उसीके निष्कांक्षित गुण पनपता है। ___ वास्तव में देखा जाये तो धर्म धारण कर, त्याग तपस्या कर, पूजा-पाठ यात्रा वन्दना आदि कर पुण्यफल की चाहना के रूप में सांसारिक वस्तु की आकांक्षा करना अपने घर में स्थित कल्पवृक्ष को काटकर धतूरे के वृक्ष को लगाना है और अपनी अज्ञानता प्रगट करना है। देव-शास्त्र-गुरु के चरणों में उपासक बनकर जाना चाहिए, याचक बनकर नहीं जाना चाहिए। आराध्यत्रय के चरणों में पजारी बनकर जाना चाहिए भिखारी बनकर नहीं जाना चाहिए। माँगने से प्रार्थना दूषित हो जाती है।
__ निष्कांक्षित अंग का धारक परमात्मा की भक्ति करके कहता है-अब मेरी कोई इच्छा नहीं है, कोई भी भाव नहीं है। मैंने अपनी सब आकांक्षाओं को तिरोहित कर दिया, सब कामनाओं को दफना दिया। अब मैं उपासना एवं साधना करना चाहता हूँ। मैं आपके पास झोली फैलाने नहीं, झोली छोड़ने आया हूँ। अब मैं सांसारिक भोग को माँगूंगा नहीं, भोग को छोड़ कर जाऊँगा। इस प्रकार की भावना से मिले हुए सांसारिक पदार्थ की उपेक्षा करता है, त्याग करता है, बचता है या उदासीन भाव से भोगता है। वह यह सोचता है कि परमात्मा ने पहले इन्हें छोड़ा है, फिर ये भगवान् बने हैं। जिन्हें आराध्यदेव ने छोड़ा है, उसे उन्ही से माँगना तो संसारबन्धन का कारण है, दुःख का कारण है, जन्म-मरण का कारण है। अगर सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के उपरान्त पुनः दुःखी होना हो तो आकांक्षा
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