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है, चरपराहट उत्पन्न करती है, पर खाने के कुछ समयोपरान्त पेट में जलन आदि दुःखों को प्रदान करती है, उसी प्रकार इन्द्रियसुख भोगते समय सुखदायी महसूस होते हैं, पर अन्त इसका दुःखरूप ही होता है। संसारी प्राणी की बड़ी विचित्र मनोदशा है। वह बाह्य वस्तुओं के संयोग को सुख समझकर उसे अंगीकार करता है और दुःख को निमंत्रण देता है। जिस प्रकार कुत्ता हड्डी को चबाकर छिले ताल से बहे रक्त को चूसकर स्वयं को आनन्दित महसूस करता है और थोड़ी देर बाद वेदना से परिपूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार सांसारिक सुख हैं। जिस प्रकार चाकू पर लगी चासनी को चाटने पर सुख होता है, परन्तु जीभ कटने पर, दुःख प्राप्त होता है, उसी प्रकार विषयों की स्थिति है। सम्यग्दृष्टि गृह में रहकर इन सब विषयों से यथाशक्ति विरक्त रहता है। कदाचित् मजबूरन किसी वस्तु का उपभोग भी करना पड़े, तो उदासीन भाव से करता है। जैसे मरीज कड़वी औषधि को जबरदस्ती पीता है और सोचता है कि वह दिन कब आयेगा जब मैं औषध रहित हो जाऊँगा। __ द्रव्यसंग्रह गाथा 13 की टीका करते हुए आचार्य ब्रह्मदेव सूरि कहते हैं- "मारण निमित्तं तलवरगृहीत तस्करवदात्मनिन्दा सहितः सन्निन्द्रिय सुखमनुभवतीत्य विरतिसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम्।” मारने के लिए कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भाँति आत्म निन्दादि सहित इन्द्रियसुख का अनुभव करता है। जिस प्रकार किराये के मकान में रहनेवाला मकान को अपना नहीं मानता, फिर भी जब तक रहता है, जब तक उसकी सफाई-सुधार व्यवस्था करता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि की भी क्रिया होती है, क्योंकि सम्यकग्दृष्टि जानता है कि कर्माधीन सुख सावधिक है। जितना कर्माधीन सुखों को भोगा जायेगा, आत्मा उतनी ही कर्माधीन हो पुनः बन्धती चली जायेगी। ___वह समस्त संसारिक भोगसामग्री को 'पापबीजे सुखेऽनास्था' पाप का बीज समझता है और आस्था रहित हो जाता है। जिस प्रकार बीज को
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