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आत्मा को अशुद्ध करने वाला है। इन सबकी आकांक्षा कर मैं अपनी आत्मा को मलिन नहीं करूँगा। मैं शुद्ध तत्त्व, चैतन्य पिण्ड आत्मा की प्राप्ति के लिए ही धर्म करूँगा, सम्यक्त्व धारूँगा, मेरा लक्ष्य कर्मों के बन्धन को तोड़ना है। जो सम्पदा कर्म के कारण प्राप्त होती है, वह नियमतः संसारवृद्धि में कारण है। इस प्रकार विचार करता हुआ निःकांक्षित गुण धारक साधक कर्माधीन सुखों की आकाँक्षा न कर कर्मातीत सुखों की आकांक्षा करता है। जो कर्माधीन सुख है, वह शाश्वत नहीं है। उस पर आस्था करना कागज की नाव से नदी पार करना है। संसारी प्राणी अनादिकाल से अपनी भूल के कारण इन्द्रियसुख को ही शाश्वत सुख मान रहा है और उसी को प्राप्त करने में सदा प्रयत्नशील रहता है। इस जीव ने आत्मिकसुख को प्राप्त करने का आज तक प्रयत्न नहीं किया। जब तक मिथ्यात्व प्रकृति का उदय रहता है, तब तक कर्माधीन सुखों की आकांक्षा बनी रहती है और जब तक कर्माधीन सुखों की आकांक्षा है, तब तक संसार में अटकाव है, भटकाव है। जब जीव का मिथ्यात्व भाव समाप्त हो जाता है, तब स्वतः आत्मिकसुख की रुचि जागृत होने लगती है। आचार्य समंतभद्र स्वामी अरनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं कि
__ लक्ष्मी विभवसर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्र लाछनम्।
साम्राज्यं सर्वभौमं ते जरत्तृणमिवाऽभवत् । 188 ।।
सम्यग्दृष्टि जीव के लिए लक्ष्मी, वैभव, चक्र, साम्राज्य, पृथ्वी आदि जीर्ण तृण के समान हैं अर्थात् साररहित हैं, कर्माधीन हैं, विनाशिक हैं। इन्द्रियजन्य सुख आत्मा का विभाव परिणाम है। परपदार्थ के संयोग से उत्पन्न हुआ सुख अधिक काल तक नहीं रहता है। अतः ऐसे इन्द्रियसुख की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए।
निष्कांक्षित अंग का धारक "दुःखैरन्तरितोदये” संसारसुख को मिर्च के समान मानता हैं। जिस प्रकार मिर्च पदार्थ में मिलकर स्वाद प्रदान करती
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