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निःकांक्षित अंग
धर्मात्मा जीव धर्म के फल में सांसारिक सुखों की बांछा नहीं करते। 'रत्नकरण्ड' श्रावकाचार' ग्रंथ में श्री समन्तभद्र आचार्य ने लिखा है
कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये। पापबीजे सुखेऽनास्था श्रृद्धानाकाक्षणा स्मृता ||12|| धर्म के फल में सांसारिक सुखों की आकांक्षा नहीं करना, 'निःकांक्षित' अंग है। इस अंग का धारक जीव विचार करता है कि ये सांसारिक सुख मेरे अधीन न होकर कर्मों के अधीन हैं। कर्मों के तीव्र-मंद उदय के अनुसार घटते-बढ़ते रहते हैं। अन्त से सहित हैं। इन्द्र और चक्रवर्ती का सुख भी अवधि पूर्ण होने पर नष्ट हो जाता है। इन सुखों के बीच–बीच में दुःख भी आते रहते हैं। ये पापबन्ध के कारण हैं। ऐसे इन्द्रियसुखों की आकांक्षा सम्यग्दृष्टि नहीं करता। यह उसका निःकांक्षित अंग कहलाता है। सम्यग्दृष्टि किसी भी प्रकार की लौकिक व पारलौकिक आकांक्षा नहीं रखता। वह जानता है कि संसार में किसी का भी सुख शाश्वत् नहीं है। वह संसार के सभी सुखों को विष-मिश्रित मिष्ठान्नवत् अत्यन्त हेय समझता है और समस्त प्रलोभनों से दूर रहता है। जिस जीव को दुर्लभ सम्यग्दर्शन रूपी रत्न की प्राप्ति हो जाती है, वह धर्म के फल में सांसारिक सुखों की आकांक्षा नहीं करता। __वह जानता है कि भौतिक सम्पदा, पद, धन, शारीरिक सुख, स्त्री-पुत्र, भाई सभी कर्मानुसार मिले हैं, सो निश्चित बिछुड़ेंगे। इन सबका संबंध
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