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से भरना । परमसुख को उपलब्ध होना हो तो निष्कांक्ष भाव से पूजा-भक्ति, आराधना, त्याग, तपस्या को अपनायें और भीतर से एकदम खाली हो जायें। तब आत्मा अपने आप परमात्मा की अमर अनन्त सम्पदा से भर जायेगी।
इस लोक में ऐश्वर्य सम्पदा आदि को और परलोक में नारायण आदि पदों को चाहना, यह है दोष और इनकी चाह न करना, सो निःकांक्षित अंग है। पंडित भूधरदास जी ने लिखा है
भोग बुरे, भव-रोग बढ़ावें, बैरी हैं जग-जी के। नीरस होंय विपाक-समय अति, सेवत लागें नीके।। बज्र अगनि विष से विषधर से, हैं अधिके दुखदाई।
धर्म-रतन के चोर चपल अति, दुर्गति-पंथ सहाई।। ये पंचेन्द्रिय के विषय-भोग संसारी जीवों का महान अहित करने वाले महाशत्रु हैं। जिस प्रकार खुजली को खुजाते समय बड़ा आनन्द आता है, परन्तु खुजा लेने के बाद जलन होती है जिससे बहुत कष्ट होता है। उसी प्रकार ये भोग भोगते समय तो जीव को अच्छे लगते हैं, परन्तु भोग लेने के बाद, शक्ति क्षीण हो जाने पर बहुत नीरस प्रतीत होते हैं। बज्र, विष या विषधर सर्प से भी अधिक दुःख ये विषय-भोग संसारी जीवों को दिया करते हैं। क्योंकि बज, अग्नि, विष आदि तो जीव के इस भौतिक शरीर का ही नाश कर सकते हैं, परन्तु ये विषय-भोग जीव की आध्यात्मिक सम्पत्ति-धर्म निधि को चुरा लेते हैं और जीव को नरक, पशु गति के मार्ग पर पहुँचा देते हैं।
मोह-उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले करि जाने।
ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन माने।। ज्यों-ज्यों भोग संयोग मनोहर, मनवांछित जन पावे।
तृष्णा-नागिन त्यों-त्यों डंके, लहर जहर की आवे ।। आत्मा का इतना अनिष्ट करने वाले इन पंचेन्द्रिय विषयों को यह
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