________________
अज्ञानीजन ऐसा विचार करते हैं कि वैभवशाली बनें, विद्यावान बनें, बड़े ऊँचे नेता बनें। इन सबके होने में मूलभाव उनका यह है कि लोग मुझे अच्छा समझें। धनवान क्यों बनते हैं ? लोग मुझे अच्छा समझें, इस बात के लिए। संस्कृत, अंग्रेजी आदि बड़ी विद्यायें सीखना इसी बात के लिये है कि लोग मुझे अच्छा समझें। इस परिणाम में तो उसने लोगों से भीख माँगी कि नहीं? ये लोग मुझे अच्छा जानें, ऐसा जो परिणाम है, यह भीख माँगने की तरह ही तो है। कोई किसी से पैसे की भीख माँगता है, कोई रोटी की। रोटी की भीख माँगना, उस अच्छा कहलवाने की अपेक्षा ठीक है। भला रोटी की भीख माँगने पर पेट तो भरेगा, तबियत शान्त रहेगी, मगर लोगों से अपने को अच्छा कहलवाने की भीख माँगना एक बड़ी गन्दी बात है। यदि विषय-कषाय से मलिन दुःखी जीवों ने मुझे कुछ अच्छा कह दिया, तो इससे इस आत्मा को क्या लाभ मिला? अरे! अपने में कुछ विवेक जगाना चाहिए और फिर देखो कि नाम की चाह करने से लाभ क्या? इस मुझ आत्मा का तो कुछ नाम ही नहीं है। सभी लोग दीन बनकर दुःखी हो रहे हैं। दुःखी नहीं हैं, पर कल्पनायें करते हैं, इच्छा करते हैं और खुद दुःखी बनते हैं। इच्छा बढ़ती हो तो दुःखी होते हैं। लौकिक लाभ की इच्छा न करें। आज जीव मनुष्यभव में है, कल मरण करके अन्य भव में पहुँच गया, तो फिर इस दुनियावी लाभ से क्या लाभ रहा? राजा भी मरण करके कीड़ा हो सकता है। मुनिव्रत धारण करके कोई तीव्र कषाय के कारण खोटी गति भी पा सकता है। जहाँ इतना हेर-फेर चल रहा है, ऐसे विकट संसार में किसी परद्रव्य की कुछ भी आशा रखना आत्मा का घात है। परद्रव्यों की उपेक्षा करके अपने आपके आत्मा में लगन लनाना, इससे आत्मा की रक्षा है। इस जगत में कोई किसी का सगा नहीं। किसी की आशा रखना व्यर्थ है।
इस जगत में सार कुछ नहीं है। अगर जगत में सार होता, तो ये बड़े-बड़े पुरुष चक्रवर्ती, तीर्थंकर इस वैभव को त्यागकर अकेले क्यों वन में तपश्चरण करते? सच जानो, किसी से कुछ न चाहो और अपने आपके आत्मा में अपने प्रभु के दर्शन करके खुश रहना, इसमें मनुष्यजीवन की सफलता है। बाहर में किसी के आश्रय और शरण में इस आत्मा को कुछ प्राप्त नहीं होता।
0 463 0