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ममता नहीं है, इसलिये ये सब ज्ञानकलायें प्रकट हुई हैं। गुरु-शिष्य वाली कथा प्रसिद्ध है। गुरु को मिली कहीं सोने की ईंट, सो शिष्य के सिर पर रख दिया। गुरु आगे चले और पीछे शिष्य चले। सम्भव है कि वह ईंट आधे मन की होगी। मारे भार के वह मरा जाय । चलते हुये मार्ग में एक जंगल मिला। गुरु शिष्य से कहता है कि ऐ शिष्य! यहाँ सम्हलकर चलना, पैर की आवाज से पत्ते न खड़कने पायें। तो शिष्य कहता है-महाराज! अब खूब निःशंक चलो, डर की चीज तो मैंने खतम कर दी। वह डर की चीज थी ममता, अहं बुद्धि। यह मेरी चीज है. ऐसा मानने से सारे भय लग जाते हैं।
वस्तुतः सम्यग्दृष्टि निर्भय रहता है। सम्यग्दृष्टि को अपने कर्म पर विश्वास रहता है। वह यह समझता है कि जो मेरे कर्म हैं, उसका फल मुझे भोगना ही पड़ेगा। इसी श्रद्धा के बल पर वह अपने जीवन में आनेवाली प्रतिकूलताओं को समतापूर्वक सहन कर लेता है।
सम्यकपथ का पथिक अपनी आत्मा को अजर-अमर अविनाशी मानता है। वह जानता है कि मेरी आत्मा का घात कोई नहीं कर सकता, फिर मैं शरीर की चिंता क्यों करूँ? शरीर तो एक वस्त्र के समान है, जो आज नहीं तो कल अवश्य छूटेगा। जो छूटनेवाला है, वह मेरा नहीं है और जो मेरा है, वह कभी छूटेगा नहीं। इस प्रकार का विचार करके वह परिवार, मकान, दुकान आदि बाह्य वस्तुओं के प्रति निर्ममत्व हो जाता है और निःशंक जीवन व्यतीत करता है। निःशंक जीवन व्यतीत करने वाला देव-शास्त्र-गुरु के वचनों को प्रमाणभूत मानकर सप्त भयों से रहित हो जाता है।
श्री सहजानन्द वर्णी जी ने 7 प्रकार के भयों का वर्णन करते हुये लिखा है- सम्यग्दृष्टि जीव को इसलोक का भय नहीं होता, क्योंकि वह जानता है कि मेरा लोक यह नहीं है। मेरा समागम, मेरे ठाठ ये कहीं कुछ नहीं हैं। यह एक आफत है और इसमें जो चित्त फंसा रहता है, उससे तो मेरे आत्मा का घात है, कुछ रक्षा नहीं है। जो लोग धन-वैभव या इज्जत/प्रतिष्ठा आदि के लिये बड़ी अपनी कमर कसे रहते हैं, ऐसे अनेक लोग हैं, तो उनका क्या लक्ष्य है? बेकार श्रम है।
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