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पुरा रे बापा रे गिरिरतिदुरारोहशिखरे, गिरौ सव्येसव्ये दवदहनज्वालाव्यतिकरः । धनुःपाणि: पश्चान्युग युशतकं धावति मृशं,
क्व यामः किं कुर्मः हरिण शिशुरेवं विलपति। इसमें समस्या का पद अन्त के चरण में कह दिया और 'पुरा रे बापा' यह शब्द पहिले ही बोल दिया। इस छन्द का अर्थ यह है कि रेवा नदी के तट पर समीप में आगे तो नदी बह रही है और अगल-बगल पर्वत में बड़ी आग लग गयी है और पीछे से 100 शिकारी धनुषवाण लिये हुये हिरण के बच्चे को जान से मारने के लिये पीछे लगे हैं, ऐसी स्थिति में हिरण का बच्चा कह रहा है कि कहाँ जाऊँ, क्या करूँ? इस प्रकार वह हिरण का बच्चा विलाप कर रहा है।
भैया ! ऐसी ही स्थिति हम-आपकी है। मोह में पड़े हैं, अज्ञान का अंधेरा छाया है। शांति, सन्तोष की बात मिल नहीं पाती। विषय-कषायों की अग्नि दहक रही है। आगे दुर्गतियों के गड्ढे पड़े हुए हैं और यह मृत्यु पीछे से इसे मारने दौड़ रही है। जैसे एक बांस की पोल में कीड़ा घुसा हो और दोनों ओर आग लग जाय, तो कीड़े की जो हालत है, ऐसी ही हम- आप जंतुओं के दोनों छोर पर संतान लग रहा है। इसके दोनों छोर क्या हैं? जन्म और मरण। जन्म से शुरू हुआ और मरण में अन्त है एक भव का। यह जो जीवन है, वह 'ओर' है और इसका जो अन्त है यह 'छोर' है। इसके ओर-छोर हैं जन्म और मरण । इसके बीच पड़े हुए हैं हम-आप कीड़ा। जन्म-मरण के आगे दोनों ओर आग लगी है। अब इस कीड़ा की क्या दशा है? विलाप करता है, संताप करता है, पर हाय रे मोही सुभट! तू इतना बलवान है और पहलवानी जता रहा है कि चाहे कितने ही उपद्रव हों, हम तो स्त्री, धन, वैभव में मस्त हैं, कोई फिक्र नहीं । क्या शरण है जगत् में, इसका भी तो ध्यान कर।
इस अशरण जगत् में अज्ञानी ने बाह्य पदार्थों को शरण माना है, इस कारण उसे भय है। जो बाह्य पदार्थों से अपनी शरण नहीं मानता, अपने आपके स्वभाव की उपासना में ही अपना शरण समझता है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं है। भय होता है ममता में। वस्तुस्वरूप के यथार्थ ज्ञानी को बाह्य पदार्थों में
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