________________
पूरा हुआ तो पिता ने धीरे-धीरे, डरते-डरते रस्सी को संभालकर ऊपर खींचा। पुत्र सकुशल वापिस आ गया। पिता ने देखा कि पुत्र का चेहरा पूर्व की भांति खिला हुआ है। चिंता की लेशमात्र छाया भी नहीं है। पिता से रहा नहीं गया, वह पूछ बैठा-"बेटा! मैं तो यहाँ बहुत डरता रहा, पर तू इतना निश्चित कैसे रहा?" पुत्र ने उत्तर दिया-"मैं निश्चित इसलिये था कि मेरी डोर आपके हाथ में थी। जिस पुत्र की डोर उसके पिता के हाथ में हो, उसे कैसी चिन्ता ? सम्यग्दृष्टि ऐसा ही प्रगाढ़ श्रद्धावान् होता है, उसे शंका एवं भय नहीं होता।
"सप्त भय विप्पमुक्का, जम्हा तम्हा दु णिस्संका।"
सम्यग्दृष्टि निःशंक होता है। निःशंक होने से ही वह निर्भय होता है। उसे इहलोक भय आदि नहीं सताते। जिसके अन्दर इहलोक आदि का भय होता है, वह दिगम्बर मुद्रा धारण कर मोक्षमार्ग पर अग्रसर नहीं हो पाता।
अंदर विषय वासना वरते, बाहर लोकलाज भय भारी।
तातें परम दिगंबर मुद्रा, धर न सके दीन संसारी।। मन में विषय-वासनायें हैं, लोकलाज का भय बाहर लगता है, लोग क्या कहेंगे- इसकी चिंता है, ऐसा व्यक्ति मुनिमुद्रा ग्रहण नहीं कर पाता, मोक्षमार्ग पर अग्रसर नहीं हो पाता। इस मार्ग पर तो सच्चा सम्यग्दृष्टि जो लोक भय से मुक्त हो, वही लग पाता है। आज के लोगों के मन में किसी भी अच्छे कार्य के प्रति-"लोग क्या कहेंगे?" इसका भय बना रहता है। "लोग क्या कहेंगे"? इसका विचार करना फैशन है, तथा "भगवान् क्या कहेंगे" इसका विचार करना कर्तव्य है। सम्यग्दृष्टि अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहता है। उसे लोक की बड़ी-से-बड़ी बाधाएँ भी प्रभावित नहीं कर पातीं। भय तो दुर्बल मन की परिणति है।
इहलोक और परलोक की बहुत चर्चा की जाती है। मन में उत्सुकता, जिज्ञासा होती है कि परलोक क्या है? वहाँ क्या होगा? इहलोक में जो कर्म किये उन्हीं के फल तो परलोक में होंगे। जो सम्यग्दृष्टि है, अपने धार्मिक कर्तव्यों का पालन करता है, उसे इहलोक और परलोक दोनों का भय नहीं होता। तीसरा मरण का भय है, जिसका नाम ही संसारी प्राणी को कँपा देता है। मरण की बात अच्छी नहीं लगती।
0 458_n