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अकम्प/निश्चल श्रद्धा होती है, उसे सम्यग्दर्शन का निःशंकित अंग कहते हैं।
सम्यग्दृष्टि निःशंक / बेधड़क सन्मार्ग में चलता है। सत्य पथ पर चलने वाला यह कभी नहीं सोचता कि मैं इस पर चलूँगा तो ऐसा हो जायेगा, तब क्या होगा? अगर उसके मन में इस प्रकार का व्यर्थ विकल्प है, तो वह सम्यक् पथ का पथिक नहीं है। निःशंकित सम्यग्दर्शन ही संसार का उच्छेदक होता है। सम्यग्दृष्टि निःशंक होकर अपने आपको देव-शास्त्र-गुरु के चरणों में समर्पित कर देता है ।
जैसे बालक अपनी माँ की गोद में निःशंक रहता है कि यह मेरी माँ मेरा भला ही करेगी, उसको कोई संदेह नहीं होता कि कोई मुझे मारेगा तो मेरी माँ मुझे बचायेगी कि नहीं?, वैसे ही जिनवाणी माता की गोद में धर्मी जीव निःशंक रहता है कि यह जिनवाणी माँ मुझे सत्य स्वरूप दिखाकर मेरा हित करने वाली है। देव, शास्त्र व गुरु के विषय में उसे संदेह नहीं रहता। मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए श्रद्धा पहली आवश्यकता है।
प्रभु के प्रति समर्पण के अभाव में सत्य की ओर बढ़ा नहीं जा सकता। जिसके हृदय में श्रद्धा और समर्पण है, संसार की बड़ी-से-बड़ी बाधाएँ भी उसका बिगाड़ नहीं कर सकतीं। जो श्रद्धा से बंध गया, उसे अब कोई भय नहीं रहता।
एक वनस्पतिशास्त्री अपने बेटे के साथ गहरी घाटी में कुछ विशिष्ट वनस्पतियों की खोज में गया। नीचे से कुछ वनस्पतियों को तोड़कर लाना था। उसने अपने बेटे से कहा- "बेटा! मैं तुझे इस रस्सी के सहारे नीचे उतारता हूँ, रस्सी अच्छी तरह मजबूती से बांध ले, नीचे से वनस्पतियाँ तोड़ लेना, फिर मैं तुझे ऊपर खींच लूंगा। खाई बहुत गहरी है, बेटा! संभलकर काम करना” | बेटा रस्सी बांधकर नीचे उतर गया और अपना काम करने लगा। ऊपर पिता चिंतित होकर विचार कर रहा है- "व्यर्थ में इतनी गहरी खाई में बेटे को उतार दिया। कहीं कोई गड़बड़ न हो जाये । बस! सकुशल ऊपर आ जाये तो जान में जान आये।" नीचे गहरी खाई में भी बेटा मजे में अपना कार्य पूरा करता रहा। काम
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