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सम्यग्दर्शन के आठ अंग
सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का वर्णन करते हुए पंडित श्री दौलतराम जी ने
लिखा है
जिन - वच में शंका न धार, वृष भव - सुख - वांछा भानै । मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व कुतत्त्व पिछानै । निज-गुण अरु पर- औगुण ढाँकै वा निजधर्म बढ़ावै । कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-पर को सु दिढ़ावै । धर्मी सौं गो-वच्छ प्रीति सम, कर निज धर्मदिपावै ।। निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं। इन आठ अंगों का वर्णन करते हुये श्री प्रमाणसागर जी महाराज ने "अंतस् की आँखें नामक ग्रंथ में लिखा है- इन आठ अंगों के पूर्ण होने पर ही हमारा सम्यक्त्व निर्दोष / सही रह पाता है, अन्यथा वह तो विकलांग की तरह अक्षम रहता है
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निःशंकित अंगः- शंका का अर्थ है संदेह । सम्यग्दर्शन से अभिभूत जीव निःशंक होता है। उसे मोक्षमार्ग पर किसी भी प्रकार की शंका या संदेह नहीं रहता। सम्यग्दृष्टि को परमार्थभूत देव, गुरु तथा उनके द्वारा प्रतिपादित सत्यसिद्धांत, सन्मार्ग और वस्तुतत्त्व पर अविचल श्रद्धा रहती है । वह किसी प्रकार के लौकिक प्रलोभनों से विचलित नहीं होता । यह अविचलित श्रद्धा निःशंकित अंग है।
2. निःकांक्षित अंगः- विषयभोगों की इच्छा को " आकांक्षा" कहते हैं। सम्यग्दृष्टि किसी प्रकार की लौकिक व पारलौकिक आकांक्षा नहीं रखता। उसके मन में इन्द्रियभोगों के प्रति बहुमान नहीं होता । वह बाहरी सुविधाओं को क्षणिक
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