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संयोग मात्र मानता है। उसकी यह दृढ़ मान्यता रहती है कि संसार के सारे संयोग कर्मों के आधीन हैं, साथ ही नाशवान भी हैं। पापोदय होते ही एक ही क्षण में धनवान से निर्धन, रूपवान से कुरूप, विद्वान् से पागल, राजा से रंक हो सकता है। संसार में किसी का भी सुख शाश्वत नहीं होता। वह संसार के सभी सुखों को विष- मिश्रित मिष्ठान्नवत् अत्यंत हेय समझता है। यह सब समझकर वह कभी भी धर्म के फल में लौकिक सुखों की आकांक्षा नहीं करता। यह उसका निःकांक्षित अंग है। 3. निर्विचिकित्सा अंग:- विचिकित्सा का अर्थ ग्लानि या घृणा होता है। सम्यग्दृष्टि शरीर की बुरी आकृतियों को देखकर घृणा नहीं करता, अपितु हमेशा व्यक्ति के गुणों का आदर करता है। उसका विश्वास रहता है कि शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है। परन्तु गुणों के द्वारा इस अपवित्र शरीर में भी पवित्रता (पूज्यता) आ जाती है। वह पदार्थ के बाहरी रूप पर दृष्टि न देकर आंतरिक रूप पर दृष्टि देता है। इस अन्तर्मुखी दृष्टि के कारण उसे मुनिराजों के गुणों के प्रति प्रीति होती है, वह उनके मलिन शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करता। यह उसका निर्विचिकित्सा अंग है। 4. अमूढ़दृष्टि अंग:- मूढ़ता मूर्खता को कहते हैं। मूर्खतापूर्ण दृष्टि मूढदृष्टि कहलाती है। सम्यग्दृष्टि विवेकी होता है। वह अपने विवेक व बुद्धि से सत्य-असत्य, हेय-उपादेय और हित -अहित का निर्णय कर ही उसे अपनाता है। वह अंध- श्रद्धालु नहीं होता। परमार्थभूत देव, शास्त्र और गुरु को वह पूर्ण बहुमान देता है। इनके अतिरिक्त अन्य कुमार्गगामियों के वैभव को देखकर प्रभावित नहीं होता, न ही उनकी निंदा या प्रशंसा करता है, अपितु उनके प्रति राग-द्वेष से ऊपर उठकर माध्यस्थ भाव धारण करता है। यही उसका अमूढदृष्टित्व
5. उपगूहन अंगः- सम्यग्दृष्टि गुणग्राही होता है। वह सतत अपनी साधना के प्रति जागरूक रहता है। यदि कदाचित् किसी परिस्थितिवश, अज्ञान या प्रमाद के कारण किसी व्यक्ति से कोई अपराध हो जाये, तो वह उसे सबके बीच प्रकट नहीं करता, अपितु एकांत में समझाकर उसे दूर करने का प्रयास करता
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