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हैं, मैं अन्य द्रव्य में नहीं हूँ, और आत्मा के अस्तित्व में दिखने वाले रागादिक भाव मेरे स्वभाव नहीं हैं। इस प्रकार स्वरूप की ओर दृष्टि रखने से सम्यग्दृष्टि जीव अनंत संसार के कारणभूत बंध से बच जाता है। वह अपनी वैराग्यशक्ति के कारण सांसारिक कार्य करता हुआ भी जल में रहने वाले कमल के समान निर्लिप्त रहता है ।
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