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लेंगे, हम तो 'कुछ' लेंगे। सेठ जी एक अशर्फी, दो अशर्फी, दस अशर्फी देते हैं, पर नाई कहता है कि हम यह नहीं लेंगे, हम तो 'कुछ' लेंगे। सेठ जी को कुछ भूख-प्यास लगी थी। नाई से कहा कि आले में जो गिलास रखा है, ले आवो। दूध पी लें। हम भी पी लें और तुम भी पी लो। नाई ने गिलास में जो देखा तो उसमें कुछ काला था। नाई ने कहा-सेठ जी, इसमें तो 'कुछ' पड़ा हुआ है। सेठ बोला कि 'कुछ' है, तो वह 'कुछ' तू ही ले ले। तू 'कुछ' के लिए अड़ा भी था। उठाया तो क्या निकला? कोयला । जो 'कुछ' की जिद में पड़ा, उसको क्या मिला? कोयला। इसी तरह यहाँ के प्राणी 'कुछ' में ही पडे हए हैं। उनको मनाफे में मिलता क्या है? मिथ्यात्व, अज्ञान।
यदि पर को छोड़कर अपने स्वभाव में आओ, तो कोई कष्ट नहीं होगा। देखो, एक जानवर है कछुआ, उसे कोई सताए तो वह अपना मुँह भीतर दबा लेता है। और यदि वह अपना मुँह भीतर दबा ले, तो वह भीतर पड़ा रहता है। कछुवे का बाकी शरीर तो कड़ा रहता है, अतः उसको चाहे ठोकते रहो, पीटते रहो, परन्तु वह सुरक्षित रहता है। यह तो उदाहरण की बात है। इसी प्रकार हमारे ऊपर चाहे जितनी आपत्तियाँ आयें, आने दो। हमारे पास तो ताकत है, हम अपना विक्रम करें, अपने विक्रम को हम भीतर ले जायें और विचार करें कि मैं तो स्वरूप मात्र, आनन्द भाव मात्र, अपने ज्ञान मात्र हूँ। क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि मेरे में नहीं हैं, परन्तु मेरे हो जाते हैं। कर्म का विक्रम है, होने दो। मैं अपना विक्रम करूँ अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा रहूँ।
करने का एक यह ही काम है कि मैं अपना विक्रम करूँ, परन्तु वह करने में नहीं आ रहा है। अपनी कमजोरी से अपने भावों को ढीला कर दिया, मन को ढीला कर दिया, तो हम स्वच्छन्द हो गए। अपने स्वभाव के दर्शन कर लिए, तो उत्साह हो गया। मुझे क्या करना है? मैं तो कृतकृत्य हूँ। मेरा तो कृतकृत्य के अतिरिक्त और काम ही नहीं पड़ा है। कौन-सा काम पड़ा है? अमुक-अमुक । अरे! वह तो मेरा काम ही नहीं है। वे प्रत्येक द्रव्य तो अपने आप में परिणमते हैं। अपनी शूरवीरता से हटे, तो दुनियाँ के सभी
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