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इस आनन्द को बनाने वाला यह भगवान्-आत्मा ही है। इस आनन्द को बनाने वाला कोई दूसरा द्रव्य नहीं है। इस जीव को यह पता ही नहीं है। इसका ही मतलब है कि इसका 'मैं' इसके लिए गुम गया। मैं ज्ञानमात्र हूँ, इसका भी पता इस जीव को नहीं है। जो बाहरी पदार्थों में अपना ज्ञान मानने की वासना लगाये हुए हैं, उनको 'मैं' का पता नहीं। जो किन्ही भी विषय-साधनों में आनन्द ढूँढ़ता है, उसको 'मैं' का पता नहीं। मैं तो ज्ञानानन्द स्वरूप हूँ, निरन्तर परिणमता रहता हूँ, ज्ञानमय हूँ।
ज्ञानी गृहस्थ जहाँ पर रहते हैं, वह अपने कुटुम्ब, परिवार, पुत्र, स्त्री इत्यादि को भिन्न ही समझते हैं। उन्हें यह प्रतीत है कि मेरा कुछ नहीं है, रंच भी इनसे संबंध नहीं है। यह चीजें मेरी हो ही नहीं सकती हैं। और जो कुटुम्ब, परिवार, बच्चों, स्त्री इत्यादि को अपना मानते हैं, अपना ही सबकुछ समझते हैं, तो उनके हाथ केवल पाप का कलंक रहता है। यह तो त्रिकाल में उसके नहीं हो सकते हैं। अगर कुटुम्ब, परिवार, स्त्री, बच्चों को अपना माना, तो मुनाफे में पाप का कलंक आ जायेगा और संसार में रुलने की बात आ जायेगी। अन्य वस्तु तो आ नहीं सकती। अरे! इस संसार में तेरा कुछ नहीं है। जगत् के बाह्य पदार्थों को अपना मानने में कितना मुनाफा है? अपना मान लेने से क्या वह अपने हो गए? वह अपने नहीं हुए। वह तो अपनी सत्ता में हैं। त्रिकाल में भी वह अपने नहीं हो सकते हैं। मिथ्या समझकर अनेक विकार बन गए, अनेक कषायें बन गईं, संसार में बहुत समय तक रुलते रहने की रजिस्ट्री करा ली। जो दुनियाँ में कुछ चाहता है, उसकी ऐसी ही हालत होती है।
एक सेठ थे, हजामत बनवा रहे थे। वह सेठ बहमी था। नाई बाल बना रहा था। अब सेठ ने देखा कि नाई तो बाल बना रहा है, इसमें तो मेरी जिन्दगी नाई के हाथ है, तो सेठ डरता है। वह सोचता है कि कहीं बाल बनाते में गला न कट जाय । इस डर से वह नाई से कहता कि बहुत बढ़िया सम्हलकर बनाना, तुमको हम कुछ देंगे। जब नाई बाल बना चुका, तो सेठ जी ने एक चवन्नी निकालकर नाई को दी। नाई ने कहा कि हम चवन्नी नहीं
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