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हैं। एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ नहीं कर सकता। इस जीव के अन्दर ही विकल्पों की चक्की चल रही है। उस चक्की में यह आत्म-भगवान् पिसता जा रहा है, कोई दूसरा इसे दुःखी करने वाला नहीं है। जो संयोग में सुख मानते हैं, वे वियोग में नियम से दुःखी होंगे। अतः शरीर या अन्य पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट कल्पना को त्याग कर तथा उनसे मोह छोड़कर ही हम सुखी हो सकते हैं। श्री सहजानन्द वर्णी जी ने 'सहजानन्द गीता' में सुखी होने के उपाय बताते हुये लिखा है
रागाभावः स्वयं स्वाप्तावाप्तास्वो हि स्वभाववत्।
स्वे स्वं परं नमस्कृत्य स्यां सवस्मै स्वे सुखी स्वयं ।। निज आत्मा की उपयोग द्वारा प्राप्ति होने पर स्वयं राग-द्वेष आदि क्लेशों का अभाव हो जाता है और प्राप्त किया है स्व आत्मा जिसने, ऐसा वह परमात्मा निज के सहज भाव के समान है। इसलिये उस परमात्मा तथा स्वात्मा को अपने में नमस्कार करके मैं अपने लिये अपने द्वारा सखी होऊँ।
अनेक कठिनाइयों से प्राप्त हुये इस मनुष्यजीवन को व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिये। अपनी ही सीधी-सीधी बात न समझकर प्राणी भ्रम करते हैं कि मैं अमुक शहर का रहने वाला हूँ, अमुक जाति का हूँ। इन सब संस्कारों को कभी-न-कभी तो अवश्य ज्ञानरूपी जल से धोना पड़ेगा। मेरा स्वभाव तो भगवान् की तरह है, अतः बाह्य भ्रमों में पड़ना व्यर्थ है। देखो भैया! भगवान् के पास क्या है? केवलज्योतिपुंज आत्मा, फिर भी सब प्राणी उन्हें नमस्कार करते हैं। फिर क्यों न हम भी उनके समान गुण धारण करें? क्यों न वैसे ही बन जावें? इतना जान भी लेना सन्तोषजनक होता है कि मैं सिद्ध भगवान् के स्वरूप के सदृश हूँ। जैसा स्वरूप सिद्धात्मा का है, शक्ति की अपेक्षा से वैसा ही स्वरूप निज आत्मा का है, परंतु संसार में भ्रम से क्लेश को प्राप्त हुआ। अब भ्रमरहित होता हुआ मैं अपने लिये स्वयं सुखी होऊँ।
सिद्ध प्रभु की तरह शुद्ध केवलज्ञानमय बनने का क्या उपाय है? अपने आपको केवल निरखना, ज्ञानमय निरखना केवलज्ञानी बनने का उपाय है। हम अपने को जिस रूप में निरखेंगे, उस रूप की प्राप्ति होगी। अतः हम अपने को
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