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यथार्थ सहज, निजस्वरूप जैसा है वैसा ही, चित्स्वभावरूप अनुभवें । मैं स्वतः सत् हूँ, स्वतः परिणामी हूँ, स्वतंत्र हूँ, विज्ञानानन्दघन स्वच्छ अविनाशी हूँ- इस प्रकार अपना अनुभव करो। सत्य सुखी होने का यही एक उपाय है।
ज्ञाता-दृष्टाहमेकोऽस्मि, निर्विकारो निरन्जनः। नित्यः सत्यः समाधिस्थ: स्यां स्वस्मै स्वे सुखी स्वयम्।। 1-8।। ____ मैं जाननेवाला व देखनेवाला हूँ, विकार रहित व मलरहित हूँ, अविनाशी केवल की सत्ता में होनेवाली साम्य अवस्था में स्थित हूँ, इसलिए समता परिणाम में ठहर कर मैं अपने में अपने लिये स्वयम् सुखी होऊँ।
ऐसी दृष्टि बनायें कि ये रागादि भाव पौद्गलिक दिखाई देवें या चिदाभास दिखाई देवें, तो भी मैं निर्विकार हूँ, निरंजन हूँ, अंजनरहित हूँ, अर्थात् उपाधिरहित हूँ। चैतन्य शक्ति ही मेरा सर्वस्व सार है। पदार्थों की ममता के परिणाम न हों, तभी शान्ति प्राप्त होती है। जब तक परपदार्थों में ममता के परिणाम हैं, तभी तक अशान्ति है। इसको मिटानेवाली स्वभावदष्टि ही है।
यदि गीदड़ों के बीच में पले शेर के बच्चे को किसी प्रकार यह मालूम हो जावे कि मैं शेर हूँ, तभी वह शेर है और जब तक पता नहीं, तभी तक गीदड़ है। इसी प्रकार कोई प्राणी चाहे कितना ही हट्टा-कट्टा क्यों न हो, यदि उसे सन्तोष नहीं, तो वह दुःखी है और दूसरा बूढ़ा, बीमार, कमजोर होते हुए भी यदि यह सन्तोष धारण करता है कि मैं स्वरूप में स्वच्छ हूँ, तो वह निरोग है, सुखी है। अतः अपनी आत्मा की दृष्टि ही सुख दिलानेवाली है।
लोक की देखादेखी पर मुग्ध न होकर अपनी ओर दृष्टि करना चाहिए। एक कथा है कि बाप, बेटा दोनों चले जा रहे थे। बाप घोड़े पर बैठा था और बेटा पैदल चल रहा था। आगे गाँव के आदमी बोले कि यह आदमी कितना बेवकूफ है, कितना स्वार्थी/खुदगर्ज है कि स्वयं तो घोड़े पर बैठा है और लड़के को पैदल चला रहा है? बाप ने कहा कि बेटा! तू घोड़े पर बैठ जा, मैं पैदल चलता हूँ। दूसरे गाँव वाले आदमी बोले कि लड़का कितना मूर्ख है, नालायक है कि स्वयं तो घोड़े पर बैठा है और बाप को पैदल चला रहा है? सुनकर उन्होंने विचार किया कि दोनों ही बैठ जावें। और दोनों घोड़े की पीठ पर बैठ गये। तीसरे गाँव में पहुंचे
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