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जहाँ तक विचार कर देखा जाता है, परम शुद्धता इस हमारी आत्मा में ही वास कर रही है। हमको निर्मल जल के लिये कहीं अन्य स्थान में जाने की जरूरत नहीं है। हमारे ही पास शान्ति और आनन्द का समुद्र है। यद्यपि इस पर कर्म का कांदा छाया हुआ है, पर जब बुद्धिपूर्वक कर्म के कीच को दूर कर देखा जाता है, तब पता चलता है कि सुख-समुद्र तो यह स्वयं आप ही है। इस सुख-समुद्र आत्मा में किसी भी प्रकार की अशुद्धता नहीं है, किन्तु परम शुद्धता है। जब कोई परमयोगी इस परम शुद्धता का दर्शन करते हैं, उस ही में तन्मय हो जाते हैं, तब उनको एक आश्चर्यकारी परमानन्द का लाभ होता है।
इस जगत में यदि कोई शान्त भाव को ढूँढना चाहे, तो उसको अपने आप में जाना चाहिये। अपने में ही अपने आत्मप्रभु को देखना चाहिए। यह आत्मप्रभु परम शान्त गुणवाला है। उसमें रागादि विकार का कहीं रंच भी दर्शन नहीं होता है। जगत में आत्मनिधि के बराबर कोई निधि नहीं है। निज तत्त्व जो आत्मा का अनन्त गुणमयी अखंड स्वरूप है, वह यथार्थ में अनुभवगोचर है- उसके लिये समझने-समझाने की चेष्टा करना उन्मत्त चेष्टा मात्र है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी "समाधिशतक' में कहते हैं
यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान्प्रतिपादये।
उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः।। 19।। स्वतत्त्व तो स्वतत्त्व में है। जो परतत्त्व से परान्मुख हो कर स्वतत्त्व में स्वयं सन्मुख होता है, वह स्वतत्त्व का अनुभव पाता है। उस स्वानुभव में परद्रव्य के गुण–पर्यायों का व अपने ही गणु-पर्यायों का भेदरूप दर्शन नहीं होता कि ऐसा हूँ, ऐसा नहीं, यह कल्पना नहीं रहती। स्वरूपासक्तता में क्या झलकता है? सो वही जाने जिसके स्वरूप झलके । एक आम्रफल के स्वाद के अनुभव का यथार्थ कथन जब अशक्य है, तब आत्मा के आनन्द वेदन का कथन कैसे हो सकता है, क्योंकि वह तो अनुभवगोचर है?
जब योगी नेत्र बन्द कर मन-वचन-काय की समस्त क्रियाओं को रोककर अपनी आत्मा का स्वयं अवलोकन करते हैं, तब उन्हें अपने आप ही आत्मा की सिद्धि हो जाती है। आत्मा का ध्यान करने से स्व-स्वभाव जाग्रत हो जाता है।
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