________________
नहीं चलता, वह संसार में ही भ्रमण करता रहता है। उसे उस जानने से कोई लाभ नहीं होता ।
एक कुम्हार था। वह प्रतिदिन जंगल से गधे पर मिट्टी लादकर लाता और उससे बर्तन बनाता था । एक दिन उसे जंगल में एक चमकीला पत्थर मिला । उसने सोचा कि यह पत्थर हमारे गधे के गले में अच्छा लगेगा। उसने उस पत्थर को गधे के गले में पहना दिया । वह थोड़ा आगे बढ़ा तो उसे दो जौहरी मिले। उन्होंने देखते ही पहचान लिया कि यह तो हीरा है। एक जौहरी ने कुम्हार से कहा- यह गधे के गले में क्या है? कुम्हार बोला- मुझे जंगल में यह चमकीला पत्थर मिला था, मैंने सोचा कि यह पत्थर गधे के गले में अच्छा लगेगा, इसलिये इसे पहना दिया। जौहरी बोला- इसे बचोगे ? कुम्हार बोला- हाँ, बेचूँगा, पर मैं एक रुपये से कम न लूँगा और न अधिक । जौहरी बोला- अरे! यह पत्थर तो पच्चीस पैसे में मिलता है । तुम ऐसा करो कि पचास पैसे ले लो। कुम्हार बोलामैं एक रुपये से कम में नहीं दूँगा और आगे बढ़ गया। दूसरा जौहरी कुम्हार के पास आया और बोला- यह पत्थर कितने में बेचोगे ? कुम्हार ने कहा- एक रुपये में। उस जौहरी ने तुरंत उसे एक रुपया दिया और उस चमकीले पत्थर को लेकर चला गया। वह पहला जौहरी दौड़ता हुआ आया और कुम्हार से बोला- तूने यह क्या किया? उसे एक रुपये में बेच दिया । यह तो कोहिनूर हीरा था । उसकी कीमत लाखों-करोड़ों रुपयों की थी । तू बड़ा बेवकूफ है। कुम्हार बोला- बेवकूफ मैं नहीं, अप हो। मैं तो इसकी कीमत जानता नहीं था, पर जब आप जानते थे कि इसकी कीमत लाखों-करोड़ों रुपये है, तब आपने उसे एक रुपये में क्यों नहीं लिया? इसी प्रकार जो जानते हुये भी मोक्षमार्ग पर नहीं चलता, उसे उस जानने से कोई लाभ नहीं होता । आचार्य समझाते हैं - रत्नत्रय को धारण करो और सदा चिन्तन करो - मैं शुद्ध, ज्ञाता - दृष्टा, अविनाशी, अमूर्तिक, आनन्दस्वभावी, परम शांत, परम स्वरसवेदी, निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रमयी, एक अखण्ड चैतन्यस्वरूपी आत्मा हूँ। इसके सिवाय अन्य कोई रूप नहीं हूँ। जो हूँ, सो ही सदा रहूँगा। मेरी गुण - सम्पत्ति का कभी वियोग नहीं हुआ और न कभी होगा। ऐसा ही अनुभवना परमार्थ मार्ग है।
406 2