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उस आत्मस्वभाव के जाग्रत होने पर अभ्यास से आत्मबल बढ़ने लगता है। जो भव्यजीव आत्मज्ञान प्राप्त कर उसका अनुभव करते हैं, वे निश्चय ही ज्ञानमात्र आत्मिक भूमि का आश्रय ले, मोह को दूर कर, स्वयंसिद्ध हो जाते हैं। रत्नत्रय प्रगट करने का परम साधन यही है। रत्नत्रय स्वरूप ही मेरा स्वभाव है।
बीज में अंकुरोत्पादन शक्ति विद्यमान है। जब वह बीज गीली मिट्टी का संसर्ग पाता है, तब अंकुरित होकर एक विशाल वृक्ष बन जाता है। ठीक इसी प्रकार पूर्ण ज्ञान की सामर्थ्य से सम्पन्न यह आत्मा इस शरीर में विद्यमान है। अन्तरंग ध्यान के बिना वह प्रकाशमान नहीं होने पाती। वही आत्मा ध्यान के बल से केवलज्ञान के प्रगट होने पर त्रैकालिक समस्त चराचर पदार्थों को एकसमय मात्र में देख व जान लेती है। जिस प्रकार चतुर स्वर्णकार अशुद्ध स्वर्ण को सुहागादि मसाले सहित प्रचण्ड अग्नि में तपाकर किट्ट कालिमा रहित शुद्ध स्वर्ण बना लेता है, उसी प्रकार योगीन्द्र शरीररूपी साँचे में स्थित मलिन आत्मारूपी स्वर्ण को रत्नत्रयरूपी सुहागादि रख प्रचण्ड ध्यानाग्नि से तपाकर परमोज्वल/शुद्ध कर लेते हैं। 'सामायिक पाठ' में लिखा है
एको मे शाश्वतश्चात्मा, ज्ञानदर्शन लक्षणः । ___ एषाः बहिर्भवा भावा, सर्वे संयोग लक्षणः ।। ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला एक शाश्वत्, चिदानन्द, निर्विकार आत्मा मेरा है, शेष बाह्य भाव सब संयोगी लक्षण वाले पराये हैं। जिसे निज स्वरूप मिल गया, वह अनन्तसुखी है। निज स्वरूप प्राप्त होता है अपने आपके लक्ष्य से।
एक बार की बात है जब पांडव व कौरव आश्रम मे पढ़ते थे। उनके गुरुजी एक दिन उन सबको लेकर जंगल में धनु विद्या सिखाने के लिये ले गये। गुरुजी ने उन लोगों से कहा कि देखो! मैंने वृक्ष पर एक लाल मिर्च को बांधा है। तुम सभी को उस पर निशाना लगाना है। सभी शिष्य धनुष-बाण लेकर निशाना लगाने के लिये तैयार हो गये। किन्तु उन्हें मिर्च दिखाई नहीं दे रही थी। गुरुजी ने पूछा कि तुम्हें क्या दिख रहा है? तो सभी ने कहा पत्तियाँ आदि नजर आ रही हैं। उसी समय गुरुजी ने अर्जुन से पूछा- अर्जुन! तुम्हें वृक्ष दिख रहा है? तो अर्जुन ने कहा- “नहीं।” डाल दिख रही है? तो वह बोला- "नहीं" | पत्ते दिख रहे है? तो
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