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सम्यग्दृष्टि जीव परम आनन्द को प्राप्त हो गये। यदि तुझे भी वैसा आनन्द प्राप्त करना है, तो सात तत्त्वों के विपरीत श्रद्धान को छोड़कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का प्रयास करो।
अज्ञानता के कारण यह जीव स्वयं अपने आपको नहीं पहचानता और व्यर्थ में दुःखी होता है। दुःख का मूल कारण इसकी अज्ञानता है। यह शरीर से भिन्न चैतन्य आत्मा को नहीं जानता और इस जड़ शरीर को ही 'मैं' मान लेता है। जैसी अहंबुद्धि इसकी शरीर में है, वैसी तो आत्मा में होनी चाहिये। और जैसी परबुद्धि पहने हुए वस्त्र आदि में है, वैसी इस शरीर में होनी चाहिये। शरीर के स्तर पर इसे भेदविज्ञान भी है। अपने शरीर, स्त्री-पुत्रादि को ही अपना मानता है, किसी दूसरे के शरीरादि को नहीं।
दो भाई थे, उनके एक-एक लड़का था। दोनों साथ-साथ रहते थे। एक बार बड़े भैया बाजार से एक गन्ना खरीदकर लाये। उनका और छोटे भाई का लडका गन्ना माँगने लगा। गन्ना एक ही था, अतः उन्होंने उसके दो टुकड़े कर लिये। जिस ओर छोटे भाई का लड़का था, उस हाथ में बड़ा टुकड़ा आया और जिस ओर स्वयं का लडका था, उस हाथ में छोटा टकडा आया तो उन्होंने हाथ घुमाकर छोटा टुकड़ा छोटे भाई के लड़के को दे दिया और बड़ा टुकड़ा अपने लड़के को दे दिया। पीछे से छोटा भाई आ रहा था, उसने यह भेदभाव देखा तो बोला-बड़े भैया! अब अपन अलग-अलग हो जायें, अब हम एकसाथ नहीं रह सकते। तो शरीर के स्तर पर इसे अपने-पराये का भेदज्ञान है। यही भेदज्ञान इसे आत्मा के स्तर पर होना चाहिये कि अनन्त गुणोंवाला यह आत्मा तो मैं हूँ और यह जड़ शरीर पर है, अन्य है, मेरे से भिन्न है।
आत्मा का कार्य मात्र ज्ञाता-दृष्टा रहना है, पर उसे न जानने के कारण ही यह कर्तृत्वबुद्धि रखता है। इसलिए चौबीसों घंटे कुछ-न-कुछ करने की उधेड़-बुन में लगा रहता है। कदाचित् कभी इच्छा और कर्म के वैसे ही उदय का संयोग बैठ जाता है तो यह कहता है कि मैंने किया। यह सोचता है कि सारा संसार मानो इसके चलाने से ही चल रहा है। एक बार एक कुत्ता गाड़ी के नीचे चल रहा था। उसे रास्ते में उसका
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