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जहाँ प्रतिसमय के निश्चित विशुद्धि रूप परिणाम होते हैं, अनेक व्यक्तियों के भी परिणाम एक दो आदि समय में एक समान होते हैं, उनमें कुछ अन्तर नहीं होता, उन परिणामों का नाम 'अनिवृत्तिकरण' है। इसका समय भी अन्तर्मुहर्त है परन्तु अपूर्वकरण से भी कम है।
इन तीनों करणों के द्वारा कर्मों का बल क्षीण होता जाता है, इनका अनुभाग, स्थिति घटती जाती है, बहुत भारी निर्जरा होती जाती है और आत्मा का बल बढ़ता जाता है, आत्मा के गुणों का विकास होता जाता है। अनिवृत्तिकरण के काल के पीछे उदय आने योग्य मिथ्यात्वकर्म के निषेकों का अंतर्मुहूर्त के लिये अभाव होता है, इसे अंतकरण कहते हैं। अंतकरण के पीछे उपशम करण होता है। अर्थात अंतकरण के द्वारा अभाव रूप किये हुये निषेकों के ऊपर जो मिथ्यात्व के निषेक उदय में अपने वाले थे उन्हें उदीरणा के आयोग्य किया जाता है। साथ ही अनंतानुबंधी कषायों का भी उपशम होता है। इस तरह उदय योग्य प्रकृतियों का अभाव होने से प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है। पश्चात् प्रथमोशम सम्यक्त्व के प्रथम समय में मिथ्यात्व प्रकृति के तीन खण्ड (मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति) करता है। राजवार्तिक ग्रंथ के अनुसार अनिवृत्तिकरण के चरम समय में तीन खण्ड करता है।
करण लब्धि के होने पर मोह दूर हो जाता है ओर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। सभी को सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का पुरुषार्थ अवश्य ही करना चाहिये। आचार्य पूज्यवाद स्वामी ने 'इष्टोपेदेश' ग्रंथ में लिखा है-जगत मे रूलाने वाला एक मात्र मोह ही है, क्योंकि यह स्व–पर का भेदविज्ञान नहीं होने देता।
__ मोहेन संवृतंज्ञानं स्वभावं लभते न हि। जिसका ज्ञान मोह से ढंका होता है, वह मोह स्वभाव को प्राप्त नहीं होने देता। स्वभाव को चाहते हो, तो मोह को हटाइये। जैसे मद को उत्पन्न करने वाले कोदों को खानेवाला व्यक्ति हेय-उपादेय को भूल जाता है, ऐसे ही मोही प्राणी भी हेय-उपादये को भूल जाता है, आपा-पर का भेदविज्ञान नहीं होता। वे सम्यग्दृष्टि मुनिराज ही धन्य हैं जिन्होंने इस मोह को नष्ट कर दिया।
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