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मात्र ही है। इन चारों लब्धियों के साथ जब भव्य जीव को पाँचवी करण लब्धि भी हो जाती है तब सम्यग्दर्शन होता है।
5.
करण लब्धि:
करण भावों को कहते हैं । सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने वाले भावों की प्राप्ति को करण लब्धि कहते हैं । करण लब्धि होने पर सम्यदर्शन हो ही हो – ऐसा नियम है। सो जिसके पहले कही हुई चार लब्धियाँ तो हुई हों और अंतर्मुहूर्त पश्चात् जिसके सम्यदर्शन होना हो उसी जीव के करण लब्धि होती है।
सो इस करणलब्धि वाले के बुद्धिपूर्वक तो इतना ही उद्यम होता है कि उस तत्त्व विचार में उपायोग को तद्रूप होकर लगाये, उससे समय- समय परिणाम निर्मल होते जाते हैं। जैसे किसी के शिक्षा का विचार ऐसा निर्मल होने लगा कि जिससे उसको शीघ्र ही उसकी प्रतीति हो जायेगी; उसी प्रकार तत्त्वोपदेश का विचार ऐसा निर्मल होने लगा कि जिससे उसको शीघ्र ही उसका श्रद्धान हो जायेगा तथा इन परिणामों का तारतम्य केवल ज्ञान द्वारा देखा, उसका निरूपण करणानुयोग के ग्रंथों में किया गया है। इस करणलब्धि में उत्तरोत्तर विशुद्धि की वृद्धि को लिये हुए तीन प्रकार के परिणाम साधक जीव के होते हैं- अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ।
1. अधःकरण :
जब आत्मा के परिणामों की विशुद्धता क्रम से तथा अक्रम से बढ़ती है। यानी किसी करण-लब्धि वाले जीव के परिणाम पहले ही समय में अन्य करणलब्धि वाले जीव के दूसरे, तीसरे आदि समयों के परिणामों के समान भी हो सकें। अर्थात् विभिन्न जीवों के पूर्ववर्ती, उत्तरवर्ती परिणामों में समानता भी आ सके, उन परिणामों को 'अधःकरण' कहते हैं । अधःकरण का समय अनर्तुहूर्त है । 2. अपूर्वकरण :
प्रत्येक जीव के परिणाम प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व होते है। अर्थात् पहले जैसे कभी न हुये हों, ऐसी विशुद्धता प्रतिसमय अनन्तगुणी बढ़ती जाती है। इसका समय अधःकरण से कम अन्तर्मुहर्त होता है।
3.
अनिवृत्तिकरण :
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