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आत्मा की भावना इस प्रकार भाना कि मैं शरीर से भिन्न मात्र ज्ञान-दर्शनमयी चैतन्य स्वरूपी आत्मा हूँ- यह भावना मजबूत बने। शरीर को अपने-रूप मानने से संसार बढ़ा। अब शरीर से भिन्न अपने स्वभाव की भावना भाने से ही मिटेगा। आचार्य समझते हैं-अत्यन्त कठिनाई से यह मौका तेरे हाथ आया है, किसी प्रकार से भी मर कर भी उस परम तत्त्व की प्राप्ति कर ले। यदि अगले जन्म पर छोड़गा तो फिर से अनन्त जन्म लेने पड़ेंगे। 4. प्रायोग्य लब्धि:
किसी ज्ञानी की दिव्य-देशना को सुनकर इस जीव को समझ में आये कि आज तक मैंनं बड़ी भूल की हुई थी कि संसार-शरीर-भोगों की तरफ मुँह किया हुआ था और भगवान् आत्मा की ओर पीठ की हुई थी। फिर तत्त्व-संबंधी रुचि में तीव्रता लाये, कषायों में मंदता हो तथा कार्मों की पूर्वसत्ता अंतः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण रह जाये और नवीन बन्ध अंतः कोड़ाकोड़ी प्रमाण उसके संख्यातवें भागमात्र हो, वह भी उस लब्धिकाल से लगाकर क्रमशः घटता जाये और कितनी ही पापप्रकृतियों का बन्ध क्रमशः मिटता जाये-इत्यादि योग्य अवस्था का होना सो प्रायोग्यलब्धि है।
सो ये चारों लब्धियाँ भव्य या अभव्य दोनों के होती हैं। इन चार लब्धियों के होने के बाद सम्यदर्शन हो तो हो न हो तो नहीं भी हो- ऐसा "लब्धसार" ग्रंथ (गाथा 3) में कहा है। इसलिये उस तत्त्व विचार वाले को सम्यग्दर्शन का नियम नहीं है। जैसे किसी को हित की शिक्षा दी, उसे जानकर वह विचारे कि यह जो शिक्षा दी सो कैसे है? पश्चात् विचार करने पर उसको ‘ऐसे ही है- ऐसी उस शिक्षा की प्रतीति हो जाये; अथवा अन्यथा विचार हो या अन्य विचार में लगकर उस शिक्षा का निर्धार न करे, तो प्रतीति नहीं भी हो; उसी प्रकार श्रीगुरु ने तत्त्वोपदेश दिया, उसे जानकर विचार करे कि यह उपदेश दिया सो किस प्रकार है? पश्चात् विचार करने पर उसको ‘ऐस ही है-ऐसी प्रतीति हो जाये; अथवा अन्यथा विचार हो या अन्य विचार में लगाकर उस उपदेश का निर्धार न करे तो प्रतीति नहीं भी हो। सो मूलकारण मिथ्यात्वकर्म है; उसका उदय मिटे तो प्रतीति हो जाये, न मिटे तो नहीं हो;- ऐसा नियम है। उसका उद्यम तो तत्त्वविचार करना
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