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उपशम-ऐसी देशघाती स्पर्द्धकों के उदय सहित कर्मों की अवस्था उसका नाम क्षयोपशम है; उसकी प्राप्ति सो क्षयोपशमलब्धि है।
अनादिकाल से संसार में भ्रमण कर रहे इस आज्ञानी जीव को न तो अपने स्वरूप की खबर है, न सच्चे देव - शास्त्र - गुरु के स्वरूप की पहचान है और न ही उनकी पूजा - भक्ति करने के प्रयोजन का विचार है। सबसे पहले तो इस जीव की दृष्टि अपने प्रयोजन को ठीक करने पर होनी चाहिये कि मैं अपनी कषाय के कारण दुःखी हूँ, वह कषाय तत्त्व विचार करने से मिटेगी और वह तत्त्व विचार सच्चे देव-शास्त्र-गुरू के माध्यम से मुझे करना है। सच्चे देव - शास्त्र - गुरु का निमित्त बड़े भाग्य से ही कदाचित् किसी जीव को मिलता है। उसके मिलने के बाद भी आत्मदर्शन का पुरुषार्थ करके आत्म-अनुभव कर लेना बड़े साहस का काम है, क्योंकि उसके लिये तीव्र रुचि चाहिये ।
2.
विशुद्ध लब्धिः
मोह का मन्द उदय होने से मन्दकषायरूप भाव हों कि जहाँ तत्त्वविचार हो सके, उसे विशुद्ध लब्धि कहते हैं। जब इस जीव में अपनी शक्ति का उपयोग करने की सद्बुद्धि जाग्रत हो, कषायों की मंदता हो, परिणामों में विशुद्धि आये, संसार में आकुलता भासित हो । तब यह स्व की खोज के लिये तत्त्व विचार करता
है
3.
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देशना लब्धिः
जिनदेव के उपदिष्ट तत्त्व का धारण हो, विचार हो, सो दशना लब्धि है। जहाँ नकरादि में उपदेश का निमित्त न हो वहाँ वह पूर्व संस्कार से होती है। गुरु आदि के द्वारा देशना प्राप्त होने पर जब परिणामों में विशुद्धता आती है, तब यह जीव विचार करता है कि अहो! अनादिकाल से इस शरीर को अपना मानकर मैं संसार में दुःखों का ही पात्र बनता रहा हूँ। जन्म समय मैं इसे अपने साथ लाया नहीं था और मरण के समय भी यह यहीं पड़ा रहा जायेगा । अतः ऐसा लगता है कि मैं इस रूप नहीं हूँ। यह जड़ मुझसे कोई पृथक ही पदार्थ है, जबकि मैं चेतन-जाति का हूँ। आज तक शरीर के साथ एकपने की भावना भाई, जिससे ग-द्वेष उत्पन्न हुआ, जीव दुःखी हुआ, इसका संसार बना। अब शरीर से भिन्न
राग
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