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भोगों में प्रीति थी, किन्तु अब स्वयं यह जान लिया कि दूसरे पदार्थ से सुख नहीं मिलता, सुखस्वरूप हम ही तो हैं, जब यह ज्ञान वाले हुये, तब उनके भोग में प्रीति नहीं रहती। किसी धोखे वाली जगह में प्रीति तब तक होती है, जब तक विषय का सच्चा ज्ञान नहीं होता है। परिवार का आज्ञाकारी होना, सैकड़ों हजारों कोसों में यश और कीर्ति का फैलना, यह सब माया है और इसमें फँसे तो आत्मीय आनन्द से हाथ धोये । जैसे अन्य लोग कहा करते हैं कि किसी ने जब बड़ी तपस्या की तो इन्द्र को डर लगा कि कहीं उसका आसन न छुड़ा ले, तब कोई सुन्दर अप्सरा उसने भेजी कि वह रूप, हाव-भाव, नृत्य दिखाकर, नाना उपाय कर ऋषि को चिगा दे। अब देखो, ये सब राग के कृत्य अपने में बड़े अच्छे लगते हैं, परन्तु यह सब धोखा है। उस धोखे में गये तो बस, तप, श्रम उनका बाद में खत्म हो जायेगा ।
इसी तरह आत्मा में उत्कृष्ट आनन्द भरा है, अनन्त आनन्द स्वभाव है। उस आनन्द स्वभावमय परमात्मतत्त्व को अपने स्वभाव के दर्शन द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। स्त्री-पुरुष भले ही उसे मिले तो क्या मिले, वे स्वयं दीन आत्मा हैं, उनसे हममें दुःख ही होता है । कुटुम्ब अच्छा मिला तो क्या मिला ? तुम्हारी तो आत्मा ही साक्षात् भगवान् है । यह माया कुछ नहीं, केवल भूल है । अपने स्वभाव की उपासना में लगो और इन भोगों से दृष्टि हटाओ । यहाँ के पदार्थ तो यों ही मिले हैं और यों ही जावेंगे। एक कथानक है कि एक चोर ने किसी सेठ के यहाँ से घोड़ा चुरा लिया और बाजार में खड़ा कर दिया । ग्राहक बोलते हैं- बोलो, क्या दाम है इसका? उसने कहा- 600 रुपया है । तिगुना दाम बताया सो सब लौट गये। इस तरह दसों लौट गये । ग्यारहवीं बार दूसरा आया, उसने भी दाम पूछा, तो उससे भी कहा 600 रुपया है। उसने समझ लिया कि इसने चोरी की है। ग्राहक बोला- इसमें ऐसी क्या बात है ? चोर कहने लगा कि इसकी चाल बढ़िया है। ग्राहक चाल देखने के लिये घोड़े पर बैठ गया, मिट्टी का हुक्का उसको पकड़ा दिया। उससे कहा- जरा पकड़ो तो । और आप घोड़े पर जा बैठा । ग्राहक घोड़े को बहुत दूर ले गया और उड़ा ही ले गया। दूसरे लोग आये, कहा भाई ! तुम्हारा घोड़ा बिक गया? कितने में बिक गया? बोला - जितने में लाये 38 S