________________
वपुष्यात्मेति विज्ञानं वपुषा धरयत्यमून्।
स्वस्मिन्नात्मेति बोधस्तु भिनत्यड्.गं शरीरिणाम् । 'शरीर में यह आत्मा है, ऐसा ज्ञान तो जीवों को शरीर सहित करता है, और आप में ही आप है अर्थात 'आत्मा में ही आत्मा है, इस प्रकार का विज्ञान जीवों को शरीर से भिन्न करता है। आगे और भी कहते हैं -
तनावात्मेति यो भाव: स स्याद्बीजं भवस्थितेः ।
बहिर्वीताक्षविक्षेपस्तत्यक्तवान्तर्विशेन्ततः ।। शरीर में ऐसा जो भाव है कि 'यह मैं आत्मा ही हूँ' ऐसा भाव संसार की स्थिति का बीज है। इस कारण, बाह्य में नष्ट हो गया है इन्द्रियों का विक्षेप जिसके, ऐसा पुरुष उस भावरूप संसा के बीज को छोड़कर अंतरंग में प्रवेश करो, ऐसा उपदेश है। अपनी आत्मा में रमण करने वाले साधु ही महान होते हैं।
सिकन्दर जब भारत से वापिस लौट रहा था तो वह कोई अदभत चीज यनान में ले जाना चाहता था। किसी ने बताया कि हिमालय की तराई में एक महान साधु बड़ा अद्भुत है, परन्तु उसे ले जाना असम्भव है, क्योंकि वह किसी की आज्ञा माननेवाला नहीं है, अपने मन का मालिक है। सिकन्दर नहीं माना और बोला-मेरी तलवार कब काम आयेगी। यद्यपि लोगों ने कहा कि जो तलवार के भय से चला जाये, वह साधु नहीं है। उसको साथ ले जाना सम्भव नहीं है। तो भी सिकन्दर ने अपने सेनापति को उसके पास भेजा। सेनापती ने साधु को सिकन्दर की आज्ञा बताई। साधु ने कहा- 'हम किसी के अधीन नहीं हैं। हम तो केवल अपनी आज्ञा मानते हैं। सिकन्दर खुद आया, नंगी तलवार लेकर बोला कि आपको हमारे साथ चलना है अन्यथा हम आपको समाप्त कर देंगे साध I ने कहा-हम भी उसे समाप्त होते देखेंगे। जिस प्रकार इस शरीर को तुम कटता देखोगे उसी प्रकार इसे हम भी कटता देखेंगे। क्योंकि तुम जिसे काटोगे वह मैं नहीं हूँ, मैं उससे अलग चैतन्य स्वरूपी आत्मा हूँ। जिस शरीर को तुम साधु समझ रहे हो, वह मैं नहीं हूँ, और जो मैं हूँ, उस आत्मा का मरण हो ही नहीं सकता, उसको कोई काट ही नहीं सकता। सारे दुःखों का मूलकारण है शरीर में अपनापन । राग-द्वेष की उत्पत्ति का
0 359 D