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मेरे पास आयेंगे तो मैं उनको यों तमाचा मारूँगा । उसका हाथ लगने से मटकी नीचे गिरकर फूट गई, उसी समय तेली बोला- क्यों जी! तुमने हमारी मटकी फोड़ दी। तब वह गुस्से में बोला- तुम्हारी तो मटकी ही फूटी है, यहाँ हमारी तो सारी गृहस्थी ही नष्ट हो गई। मनुष्य शेखचिल्लियों जैसी नाना प्रकार की कल्पनायें किया करते हैं यह सब मोह का अज्ञान क परिणाम है।
आचार्य समझा रहे हैं तूं अनादिकाल से पर द्रव्यों की संगति से अनेक प्रकार के दुख भोगता आ रहा है। तुम्हें अपने वास्तविक स्वरुप का ज्ञान नहीं है, इस कारण अपने शरीर को ही 'मेरा स्वरुप है ऐसा मानते हो, यह विभ्रम ही संसार भ्रमण का कारण है। जिसे शरीर भिन्न है आत्मा भिन्न है ऐसा सच्चा श्रद्धान होता है उसे ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है ।
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एक जंगल में से दो मुनिराज जा रहे थे। शरीर की दृष्टि से वे पिता-पुत्र थे। पुत्र आगे-आगे चल रहा था, पिता पीछे थे। जंगल एकदम भयानक था। दोनों तत्त्वचर्चा करते जा रहे थे- 'शरीर अलग है और चैतन्य आत्मा अलग है। शरीर के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता।' इतने ही में अचानक सिंह का गर्जन हुआ। पिता ने पुत्र से कहा- तुम पीछे हो जाओ, यहाँ खतरा है। किन्तु पुत्र नहीं आया। पिता ने पुनः कहा, किन्तु पुत्र नहीं आया। सिंह सामने आ चुका था। मृत्यु सामने खड़ी थी । पुत्र बोला- 'मैं शरीर नहीं हूँ, मैं चैतन्य स्वरूपी आत्मा हूँ, मेरा नाश हो ही नहीं सकता, मेरी मृत्यु कैसी?' पिता तो भाग गया, लेकिन पुत्र आगे बढ़ता गया। सिंह ने उस पर हमला कर दिया। वह गिर पड़ा था, पर उसे दिखाई पड़ रहा था कि जो गिरा है, वह मैं नहीं हूँ। वह शरीर नहीं था, इसलिये उसकी मृत्यु नहीं हुई। पिता मात्र कहता था, कि शरीर हमारा नहीं है, परन्तु दिखाई उसको यह दे रहा था कि शरीर हमारा है । वस्तुतः कहने और दिखने मे मौलिक अन्तर है। सही दिखने से अर्थात् सच्ची श्रद्धा से जीवन में परिवर्तन होता है, कहने से नहीं। इसलिये सम्यग्दर्शन अर्थात् सच्ची श्रद्धा को मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी कहा है।
आचार्य शुभचन्द्र महाराज ने 'ज्ञानार्णव' ग्रंथ में लिखा है
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