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कारण है शरीर में अपनापना। जितना शरीर को अपनेरूप में देखोगे, उतना राग-द्वेष-मोह बढ़ेगा और जितना हम शरीर को स्वयं से अलग देखेंगे, तो मोह पिघलने लगेगा। इसलिये हमको खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, गाते-बजाते हर समय स्वयं को शरीर से भिन्न ही अनुभव करना चाहिये। शरीर
और आत्मा को एक देखना भ्रम है और शरीर एवं आत्मा को अलग देखना विवेक है, सम्यग्ज्ञान है। सिकन्दर अवाक् होकर साधु के वचन सुनता रहा। उसे अनुभव हुआ साधु जी जो कह रहे हैं वही सत्य है।
यदि हमारी कोई वस्तु घर में गुम गई हो और हम उसे बाहर ढूँढें तो क्या वह प्राप्त होगी? नहीं होगी। जब तक हम उसे अपने घर में नहीं ढूँढेंगे, वह कभी प्राप्त नहीं हो सकती। इसी प्रकार सत्य तो आत्मा का स्वभाव है, आत्मानुभूति है, जिसे हम परपदार्थों में ढूँढ़ रहे हैं, इसलिये आज तक प्राप्त नहीं हुआ। सत्य स्वभाव की प्राप्ति तो केवल उन्हें ही हुई है जिन्होंने समस्त परपदार्थों से मोह छोडकर संयम-तप को अपनाकर अपने स्वरूप में डबकी लगाई है। ___ मोहनीय कर्म आत्मा को मोहित करता है, मूढ़ बनाता है। इस कर्म के कारण जीव मोहग्रस्त होकर संसार में भटकता है। मोहनीय कर्म संसार का मूल है। इसलिये इसे “कर्मों का राजा” कहा गया है। समस्त दुःखों की प्राप्ति मोहनीय कर्म से ही होती है। इसलिये इसे "अरि" या "शत्रु” भी कहते हैं। यह आत्मा के वीतराग भाव तथा शुद्ध स्वरूप को विकृत करता है, जिससे आत्मा राग-द्वेषादि विकारों से ग्रस्त हो जाता है। यह कर्म स्व-पर विवेक एवं स्वरूप रमण में बाधा डालता है। पंडित श्री दौलतराम जी ने लिखा है-“मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि।” मोहरूपी तेज शराब पीकर जीव अपनी आत्मा को भूल रहा है। मोह इतना बड़ा शत्रु है कि विष तो एक भव में ही प्राण हरता है, लेकिन मोहरूपी विष भव-भव में दुःख देता है। __मोह कर्म ऐसा होता है, जैसे फौज का कमांडर अगर मारा जाए तो फौज ठहर नहीं सकती। उसी प्रकार अगर मोह कर्म को जीत लिया जाए, तो शेष कर्म ठहर नहीं सकते। इस कर्म की तुलना मदिरापान से की गयी है। जैसे मदिरा
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