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गये। ज्ञान ही सुख है, आनन्द व शान्ति देता है। और यदि ज्ञान नहीं हैं, तो आजीवन क्लेश है। अतः अपनी आत्मा को पहचान कर सम्यग्ज्ञानी बनो।
श्री सहजानन्द वर्णी जी ने लिखा है - यह मैं आत्मा कैसा हूँ, कैसे स्वभाव वाला हूँ ? जैसा हूँ, तैसा ही मानना, इसी के मायने है धर्म पालन। मेरा शरीर है, मेरे स्त्री-पुत्र, मकान-वैभव आदि हैं, यही मिथ्या मान्यता ही संसार भ्रमण का कारण है। पदार्थ जैसा है वैसा न अनुभव करना, वैसा न मानना, बस इसी का नाम है जगजाल में रुलना। जो अपने को नाना वेशों रूप शरीरादि रूप ही अनुभवता है, उसे शान्ति नहीं मिलती, क्योंकि इसके नाना रूप बन गये, सो एक तो वे सब पराये और फिर हैं नाना, अतः उनकी संभाल कैसे हो? मुक्ति का रास्ता और कोई दूसरा नहीं है। यही अपनी आत्मा का जैसा शुद्ध चैतन्य मात्र स्वरूप हैं वैसा माना जाये, बस, यही मोक्ष का रास्ता है, मुक्ति का पथ यही है। आप धर्मपालन के लिये कितनी भी क्रियायें कर लो, किन्तु यदि अपनी आत्मा का श्रद्धान व अनभव नहीं हआ, तो धर्मपालन नहीं हआ. शान्ति का मार्ग नहीं मिला. मोक्ष का मार्ग नहीं पाया। धर्म एक ही होता है, धर्म पचासों नहीं होते।
यदि वास्तव में धर्म करना है, आत्मा का कल्याण करना है, तो अपनी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके आत्मानुभव करने का अभ्यास करो, बाहर की ओर से दृष्टि कम करके अपनी प्रकृति, रहन-सहन को सात्विक बनाओ और मुख्य प्रयोजन, जो आत्मसिद्धि का है, उसे करो। बनावट/दिखावट न करके आत्मानुभव की ओर दृष्टि हो तो बस, यही धर्म का पालन है। शान्ति भी इसी उपाय से प्राप्त होगी, मोक्षमार्ग भी इसी उपाय से मिलेगा। दर-दर परपदार्थों में भटकना, नाना प्रकार की कल्पनायें करके उपयोग को बाहर फँसाना, यह सब अशान्ति के साधन हैं, अधर्म का पालन है, धर्म की उपेक्षा है। ___अपने धर्म से अर्थात् आत्मस्वभाव से स्नेह करो। जगत में कहाँ भटक रहे हो? इन परपदार्थों से शरण नहीं मिलेगी, हर एक से धोखा मिलेगा, हर एक से बहकावा मिलेगा, शरण कहीं नहीं मिलेगी। केवल पंच-परमेष्ठी व अपनी शुद्ध आत्मा, ये दो ही शरण हैं। "शुद्धातम अरु पंचगुरु, जग में शरणा दोय ।” अतः पर से मोह छोड़कर अपने आपमें बसे हुये परमात्मतत्त्व की शरण में जाओ। यही
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