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मुक्ति का मार्ग है। दूसरा कोई मुक्ति का मार्ग नहीं है। जो अपनी आत्मा के सहज चैतन्य स्वरूप की श्रद्धा पा लेगा, वह ही अपने स्वरूप में रम जायेगा। ऐसी स्वाधीन शाश्वत आत्मा की श्रद्धा बिना मोक्ष का मार्ग नहीं मिलेगा। किसी बहकावा, किसी बाल-बच्चों की उलझन में पड़कर शान्ति नहीं मिलेगी और आगे का रास्ता भी बंद हो जायेगा। बाहरी चीजों में पढ़कर इस आत्मा का कुछ भी हित नहीं है। हित तो केवल आत्मा के ध्यान, चिंतन, मनन में है।
एक बार एक राजा किसी दूसरे राजा से लड़ाई करने गया। दो माह तक युद्ध होता रहा। उसमें उस राजा की विजय हई। इसके बाद वहाँ पर राजा ने बड़ा उत्सव मनाया और खुशी में अपनी सब रानियों को वहाँ से पत्र भेजा कि जिसको जो कुछ चाहिये मुझेपत्र में लिखें। तब किसी रानी ने साड़ी लिखा, किसी ने अमुक खिलौने को लिखा, किसी ने कुछ लिखा। जो सबसे छोटी रानी थी उसने अपने पत्र में केवल एक (1) का अंक लिखा. और कछ नहीं लिखा और पत्र को लिफाफे में रखकर भेज दिया। जब राजा ने पत्रों को खोला तो किसी में कुछ लिखा था, किसी में कुछ। मगर छोटी रानी के पत्र में केवल एक (1) का अंक लिखा था। राजा इस केवल (1) का अर्थ न समझ सका। उसकी समझ में उस केवल एक का मतलब न आया। उस राजा ने मंत्री से पूछा कि इस छोटी रानी ने क्या मँगाया है। मंत्री पत्र को देखकर कहता है कि छोटी रानी ने केवल एक आपको ही चाहा है, और कुछ नहीं चाहा है। राजा सभी रानियों को किसी को साड़ी, किसी को गहना, किसी को खिलौने लेकर अपने देश जाता है। जब वह वहाँ पहुँचता है तो जहाँ जो कुछ देना था उनके घर पहुँचा दिया और स्वयं छोटी रानी के महल में पहुंच गया। इसने केवल एक को चाहा था। अब यह बतलाओ कि राजा के वहाँ पहुँच जाने से राजा की सारी चीजें, सारा वैभव, हाथी, सेना, शासन, इज्जत सबकुछ उसके महल में पहुँच गये या नहीं?
एक आत्मा का शुद्ध स्वरूप जिसके ज्ञान में आ गया, उसको ही सर्व सिद्धि है। 'जे एक्कं जाणई, ते सव्वं जाणई।' जो एक आत्मा को जान लेता है, वह सबकुछ जान लेता है। यह चैतन्यस्वरूप आत्मा ही धर्म की मूर्ति है, वह भगवान्
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