________________
पकड़कर बोले - अरे भाई! ठहरो-ठहरो। मैं बहुत फँस गया हूँ, मुझे इस खम्भे ने पकड़ लिया है। जब यह खम्भा मुझे छोड़े, तो मुझे चैन पड़ेगी और मैं तुम्हारे प्रश्न का जवाब दे सकूँगा। तो वह प्रश्नकर्ता कहता है कि महाराज! मैं तो आपको बड़ा बुद्धिमान समझकर आपके पास आया था, मगर आप तो बड़े बेवकूफ मालूम होते हैं। राजा जनक बोले-कैसे ? उसने कहा-आपने खुद खम्भे को पकड़ रखा है, फिर भी कह रहे हो कि खम्बे ने मुझे पकड़ लिया है ? तो राजा जनक बोले-बस, यही उत्तर तो तेरे लिये है। अरे! तूने खुद गृहस्थी को पकड़ रखा है और कहता है कि गृहस्थी ने तुझे पकड़ रखा है।
देखिये, पकड़ किसी ने नहीं रखा है, पर विकल्प करके उनको अपने उपयोग में लेकर वैसा मान रखा है। तू तो सर्व पदार्थों से निराला ज्ञान मात्र आत्मतत्त्व है। इस देहबुद्धि को, रागबुद्धि को छोड़कर यथार्थ समझ। सबका जुदा-जुदा अस्तित्त्व है। सब जीवों के जुदे-जुदे कर्म हैं। सभी जीव अपने कर्मोदय से सख-द:खी होते हैं। शरीर स्त्री पत्रादि को अपना मानना तो निपट अज्ञान है, व्यर्थ का मोह है। भला बताओ – घर में जितने जीव आये हैं वे क्या पूर्व भय से साथ आये हैं ? उनके साथ मेरा कुछ सम्बन्ध है क्या ? मेरी अनुभूति से उनकी अनुभूति बनती है क्या ? कुछ भी तो सम्बन्ध नहीं। अरे! उनके साथ उनके कर्म लगे, मेरे साथ मेरे कर्म लगे, वे अपनी परिणति से सुख-दुःख पाते हैं। हम अपनी परिणति से सुख-दुःख पाते हैं। जरा सम्बन्ध का कुछ ढंग तो बताओ कि किस तरह आपका उनसे सम्बन्ध हैं, कोई अधिकाधिक यह कहेगा कि मैं पिता हूँ, वह पुत्र है, मैंने इसे पैदा किया। तो, भाई! गलत है। आपने जीव को पैदा नहीं किया। जगत में जितने भी पदार्थ हैं, वे अनादि से हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। जीव पैदा नहीं किया जाता। यह व्यर्थ का मोह है। जब प्रत्येक जीव का कर्मोदय अपना-अपना है और उसके उदय में वे सुख-दुःख पाते हैं तो यह बात कैसे रही कि मैंने उसे सुखी किया अथवा अमुक को दुखी किया। मोह से ही तो दुःख उत्पन्न होता है और फिर भी दुःख दूर करने के लिये किया जा रहा है मोह ! जब से मनुष्य जीवन पाया है, तब से लेकर अब तक यही काम किया। इसीलिए तो कहते हैं कि मैंने बहुत काम किये-दुकान
0 336 0