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पायें । यहाँ का यह समागम, जिसकी आसक्ति के कारण पापकर्मों का आस्रव बन्ध हो रहा है, कुछ भी साथ में जानेवाला नहीं है। अतः पर से भिन्न निज को पहचानो।
जो सम्यग्दृष्टि होते हैं, वे पर पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना नहीं करते। वे उन्हें जानते मात्र हैं, परन्तु प्राप्त करने की इच्छा नहीं करते।
एक व्यक्ति बाजार की एक सबसे बड़ी दुकान में गया और उसने उस दुकान में अनेक प्रकार की सस्ती-मंहगी अनेक वस्तुयें देखीं तथा अंत में जाते समय बोला-दुकान बहुत अच्छी है। तब दुकानदार ने कहा कि, भाई! आप कुछ खरीद तो करो। तब वह व्यक्ति बोला-भाई ! तुम्हारी दुकान बहुत अच्छी है, परन्तु मुझे तुम्हारी दुकान में उपलब्ध वस्तुओं में से किसी भी वस्तु की जरूरत नहीं है, इसलिये मैं इन्हें लेकर क्या करूँ? दुकानदार ने कहा कि तुम दुकान की मात्र प्रशंसा करते हो, परन्तु खरीदते तो कुछ हो नहीं। तब वह व्यक्ति बोला कि, भाई! सोचो, जरा सोचो, आप एक दवा की दुकान पर जाओ, उसे देखो और सभी प्रकार के बड़े-से-बड़े रोगों की दवाओं को देखकर प्रसन्नता व्यक्त करो और किसी भी दवा की खरीद न करो, क्योंकि तुम्हें किसी प्रकार का रोग न होने से किसी भी प्रकार की दवा लेने की जरूरत ही नहीं है।
इसी प्रकार इस जगतरूपी दुकान में जड़-चेतन समस्त पदार्थ भरे हुये हैं, सभी वस्तुयें अपने-अपने स्वभाव में सुशोभित हैं। उनमें जिनके इच्छारूपी रोग व्याप्त है, वे तो सुख की इच्छा से परपदार्थों का ग्रहण करते हैं, परन्तु ज्ञानी तो कहते हैं कि मैं मेरे स्वरूप से परिपूर्ण हूँ तथा मैं मेरे स्वरूप से तृप्त व सन्तुष्ट हूँ। इच्छारूपी रोग मुझे नहीं है, फिर मैं पर द्रव्य का ग्रहण किस लिये करूँ। व्यक्ति अपनी इच्छाओं के कारण ही संसार में फँसता है। ____ एक दृष्टांत आता है राजा जनक का, कि राजा जनक बड़े ज्ञानी पुरुष थे। तो एक गृहस्थ पहुँचा अपनी एक समस्या का समाधान पाने कि महाराज! मैं बड़ा दुःखी हूँ, मुझको गृहस्थी ने फँसा रखा है। उससे मैं निकल नहीं पा रहा हूँ, आप कोई उपाय बताइये जिससे मैं गृहस्थी से निकल सकूँ। तो राजा जनक मुख से कुछ न बोले, किन्तु सामने एक खम्भा खड़ा था उसको दोनों हाथों से
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