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इसका राग तो है, पर ऐसा राग नहीं है जो आगामी समय के लिये भी राग बाँध ो। उसकी यह बुद्धि नहीं होती है कि मैं ऐसा ही भोग जीवन भर भोगता रहूँ। वह तो यह चाहता है कि कब वह समय आये कि इस भावी विपत्ति से छूट जाऊँ। किन्तु अज्ञानी जीव को इस प्रकार का राग है कि उस चीज को वर्तमान में भी नहीं छोड़ सकता और आगामी समय के लिये भी राग बंधेगा ।
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देखो, हित और अहित की ये दो ही बातें हैं, और अधिक नहीं जानना अहित की बात यह है कि जिस पर्यायरूप हूँ, जिस परिणमन में चल रहा हूँ, मैं यह ही हूँ, इससे परे और कुछ नहीं हूँ-यदि यह श्रद्धा होती है, तो संसार में रुलना पड़ता है और जो ज्ञानीजीव जानता है कि मैं न मनुष्य हूँ, न रागद्वेषादि परिणाम हूँ, किन्तु मैं एक शुद्ध चैतन्य मात्र हूँ, ऐसा जिसके भाव रहता है, वह पुरुष अपनी आत्मा को पाता है और मोक्षमार्ग में लगता है। भीतर के इतने से निर्णय में संसार और मोक्ष का फैसला है। भीतर में अपने आत्मस्वरूप को छोड़कर जहाँ यह माना कि मैं अमुक-अमुक हूँ, बस, फैसला हो चुका कि संसार में जन्म-मरण करना होगा। ओर जिसने शरीर व कर्मों से भिन्न ज्ञानमय अपने को मान लिया, बस, फैसला हो चुका उसका मोक्ष जरूर होगा। जो चीज छूट जानेवाली है उस चीज से प्रीति नहीं तजी जा रही है, यही तो सबसे बड़ी अज्ञानता (मलिनता) है ।
अनादिकाल से भ्रमण करते-करते आज यह दुर्लभ मनुष्य जन्म पाया। अगर यह विषय और कषायों में लगा दिया, चाहे वे कषायें धर्म के नाम पर ही क्यों न हों, तो जीवन बेकार समझिये। सभी को दो कार्य अवश्य करने चाहिये । प्रभु-भक्ति और ज्ञानस्वरूप आत्मा की उपासना । यदि इस सुअवसर में हम चेत न सके, इन दो कर्तव्यों का पालन न कर सके, स्वच्छन्द बने रहे, विषय-कषाय में ही सारा जीवन खो दिया और उसके फल में यदि कीड़ा-मकोड़ा, पेड़-पौध बन गये, तो क्या स्थिति होगी ? सो इन खड़े पेड़-पौधों को देखकर समझ लो। ये संसार में रुलने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर सकते। अरे, ऐसा काम करें जिससे अगले भव में भी हमें धर्म का वातावरण मिले और निकटकाल में ही इस शरीर से छुटकारा पाकर मुक्ति को प्राप्त करें, समस्त झंझटों से मुक्ति
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