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विचार करने लगा
अरे रे! मैं कितना मूर्ख हूँ ? ऐसे रत्नों की तो पूरी थैली भरी थी और मैंने अज्ञानता में मूर्खता करके खेल-खेल में उन सब रत्नों को समुद्र में फेक दिया।
इस प्रकार वह रोने लगा, तब उन सज्जन पुरुष ने उसे पुनः समझाया भाई! तू रो मत तेरे पास अभी भी जो एक रत्न बचा है, वह भी इतना कीमती है कि तू उसकी कीमत समझे और बराबर सदुपयोग करे तो पूरी जिन्दगी भर तुझे सुख और सम्पत्ति मिलती रहेगी। उस एक रत्न से भी तेरा कार्य हो जायेगा। इसलिये जो रत्न चले गये, उनका अफसोस छोड़कर अब जो रत्न हाथ में है, उसका सदुपयोग कर लो। जब जागो तभी सबेरा । उसके बाद उसने हाथ में बचे हुये उस एक रत्न का सदुपयोग किया और सुखी हुआ।
इसी प्रकार कोई भद्रपरिणामी आसन्न–भव्यजीव इस भवसमुद्र के किनारे आया अर्थात् त्रस-पर्याय को प्राप्त हुआ। वहाँ उसे त्रस-पर्याय में सर्वोत्कृष्ट मनष्य भवरूपी रत्न मिला. परन्त वह रागादि में ही सुख मानता हुआ जगत के क्षणिक विषय-कषाय के पोषण में ही अपने को रंजायमान करता हुआ उस मनुष्यभवरूपी रत्न को नष्ट करता रहा। __ इस प्रकार इस रत्न को नष्ट करते देखकर किसी ज्ञानी ने आवाज दी अर्थात् भव्यजीव को देशना मिली कि, अरे भाई! ठहर। यह रत्न है, इसे फेक मत देना। यह मनुष्य पर्यायरूपी अमूल्य रत्न तो बहुत कम जीवों को ही मिलता है और बार-बार नहीं मिलता ? यदि यह मनुष्यभवरूपी महारत्न हाथ से चला जायेगा तो फिर तुझे मोक्षमार्ग का अद्भुत अपूर्व अवसर कैसे मिलेगा? तब वह जीव उस ज्ञानी पुरुष पर विश्वास करके उसके बताये मार्ग पर चलकर इस मनुष्यभवरूपी रत्न की जो असली कीमत मोक्ष है, उसे पाकर सदा के लिये सुखी हो जाता है।
अतः जिनधर्म को प्राप्त कर अब तो मिथ्यात्व को छोड़ो और सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने का प्रयास करो। सम्यग्दर्शन के अभाव में इस मिथ्यादृष्टि जीव की दशा उल्टे-घड़े जैसी होती है। एक माँ ने अपने बेटे से कहा-बेटा ! इस घड़े को ले जाकर नल के नीचे
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