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वह सुख कैसा होगा? सो थोड़े-से निराकुलित स्वभाव को जानने से संपूर्ण निराकुलित स्वभाव की प्रतीत आती है। सम्पूर्ण शुद्ध आत्मा कितनी निराकुलित स्वभाव की होगी?
निज ज्ञान-आनन्द स्वभाव की प्राप्ति के लिए मिथ्यात्व और कषाय का नाश करना आवश्यक है। कषाय अथवा राग-द्वेष की उत्पत्ति का कारण अपनी मन की मिथ्या मान्यता है। अपने स्वरूप को यदि यह जीव पहचाने, तो इसकी मिथ्या मान्यता छूटे। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से अपने स्वरूप को स्पर्श करने का, अनुभव करने का पुरुषार्थ करते हुए जब यह जीव निर्णय करता है कि मैं शरीर से भिन्न एक अकेला चेतन तत्त्व हूँ और मेरी पर्याय में होने वाले रागादि भाव, जिनके कारण में दुःखी हूँ, मेरे स्वभाव नहीं हैं, अपितु विकारी भाव हैं, अनित्य हैं, नाशवान् हैं, तब यह जीव शरीर और रागादि से भिन्न अपने ज्ञाता स्वरूप को देख पाता है। यही सम्यग्दर्शन है। जब रागादि से भिन्न अपने शुद्ध स्वरूप का निर्णय हो जाता है, तब ही राग-द्वेष के नाश के लिए वास्तविक पुरुषार्थ आरंभ होता है।
जब इस जीव की मोहरूपी निद्रा टूटती है, तो इसे आपना परिचय प्राप्त होता है कि मैं पुद्गलादि परद्रव्यों से भिन्न राग-द्वेषादि विकारों से रहित परमानन्दमय आत्मा हूँ। सर्वगुणों का धाम यह आत्मा है, सर्वद्रव्यों में उत्तम द्रव्य व सर्वतत्त्वों में उत्तम तत्त्व है। श्री गणेश प्रसाद वर्णी जी ने 'वर्णी वचनामृत' में लिखा है -
यदि हमें संसार के बन्धनों से मुक्त होना हो तो सर्वप्रथम हम कौन हैं? हमारा स्वरूप क्या है? वर्तमान में कैसा है ? तथा संसार क्यों अनिष्ट है? यह जानने का प्रयास करें, क्योंकि जब तक इन सब बातों का निर्णय न हो जाये, तब तक उसके अभाव का प्रयत्न हो ही नहीं सकता। हम इच्छा करने मात्र से मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते। आत्मा में जो रागादि विभाव परिणाम हैं, उनके दूर करने के अर्थ 'श्री वीतरागाय नमः' यह जाप असंख्य कल्प भी जपा जाये, तो भी आत्मा में वीतरागता नहीं आयेगी, किन्तु रागादि की निवृत्ति से अनायास वीतरागता आ जायेगी।
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