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कि जानने-देखने वाला जीव और ही था। तथा देखो, मरण के समय कुटुम्ब-परिवार के लोग मिलकर इसे बहुत पकड़-पकड़ कर रखना चाहें तथा गहरे तलघर में मोटे कपाट भी जड़कर रखें, तो भी सर्व कुटुम्ब के देखते-देखते दीवार व घर में से आत्मा निकल जाती है, और किसी को यह दिखती नहीं है। अतः तू सिद्ध भगवान् के समान ही चैतन्यस्वभावी अरूपी आत्मा है, इसमें संदेह मत कर । द्रव्यदृष्टि से सिद्धों के स्वरूप में और तेरे स्वरूप में अंतर नहीं है। सिद्ध भगवान् का नाम लेने व ध्यान करने से ही भवरूपी आताप विलीन हो जाता है, परिणाम शांत होते हैं और निजस्वरूप की प्रतीत होती है। सिद्ध भगवान् के स्वरूप में और अपने स्वरूप में सादृश्यपना है। इसलिये सिद्ध भगवान के स्वरूप का ध्यान कर अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान करना चाहिये।
'परमात्म-प्रकाश' ग्रंथ की टीका में पं. दौलतराम जी ने लिखा है-द्रव्य छह हैं, उनमें से पाँच जड़ और जीव को चेतन जानो। पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश ये सब जड़ हैं, इनको अपने से जुदा जानो और जीव भी अनन्त हैं, उन सबको अपने से भिन्न जानो। अनंत-चतुष्टय-स्वरूप अपना आत्मा है, उसी को निज (अपना) जानो और रागादिक भाव कर्मों को, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मों को तथा शरीरादिक नोकर्मों को अपने मत मानो। ये सभी जीव से भिन्न हैं।
ब्र. राममल्लजी ने एक उदाहरण दिया है - जैसे जल का स्वभाव शीतल है पर अग्नि के निमित्त से ऊष्ण हो जाता है, सो उष्ण होने पर (पर्याय में) अपना शीतल गुण भी खो देता है। स्वयं उष्णरूप होकर परिणमता है और औरों को भी आताप उत्पन्न करता है। पीछे काल पाकर जैसे-जैसे अग्नि का संयोग मिटता है, वैसे-वैसे जल का (पर्याय) स्वभाव शीतल होता जाता है तथा जो को भी आनन्दकारी होता है। उसी भाँति इस आत्मा का स्वभाव सुख है, परन्तु कषाय के निमित्त से आकुल-व्याकुल होकर परिणत है, पर्याय में सर्व निराकुलित गुण जाता रहता है, तब अनिष्टरूप लगता है। पुनः जैसे-जैसे कषाय का निमित्त मिटता जाता है, वैसे-वैसे निराकुलित गुण प्रकट होता जाता है, तब वह इष्टरूप लगता है। सो किंचित् कषाय मिटने पर जब इतना सुख होता है, तब सम्पूर्ण कषायों के मिटने पर जिनके अनन्तचतुष्टय प्रकट हुआ है, उनका
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