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अतः इन असार इन्द्रियविषयों को छोड़कर भगवान् ने सात तत्त्वों का जैसा स्वरूप बताया है, उसे समझकर श्रद्धान कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करो और इस बाह्य जगत के पीछे दौड़ना छोड़ दो।
संसारभ्रमण का मूलकारण यह मोह ही है। मोह, असंयम, पाप ये सब मदिरा के समान हैं। इनमें नशा होता है। जिसमें आसक्त होकर यह संसारी प्राणी अपनी ही आत्मा का अहित करता है।
एक बार एक राजा हाथी पर बैठकर शहर में घूमने गया। उसे रास्ते में एक कोरी मिला। कोरी ने मदिरा पी रखी थी, इसलिए वह होश में नहीं था। राजा को देखकर वह बोला- ओबे रजुआ! हाथी बेचेगा क्या? राजा को सुनकर बड़ा गुस्सा आया, यह कोरी कैसे मेरे हाथी को खरीदेगा ? मंत्री जी साथ में थे। उसने राजा को समझाया- यह कोरी नहीं बोल रहा है, कोई और बोल रहा है। अभी वापस राजा-दरबार में चलते हैं, इसे वहीं बुलायेंगे, आप वहाँ ही उसे दण्ड देना। कुछ देर बाद राजा राज-दरबार में पहँचा। वहाँ उसने कोरी को बुलवाया। तब तक कोरी का नशा उतर चुका था, वह होश में आ चुका था। ज्योंही वो राजा के सामने लाया गया तो, राजा कहता है कि तू रास्ते में क्या कह रहा था, मेरा हाथी खरीदेगा? कांपने लगा बेचारा बोला- महाराज! यह आप क्या कह रहे हैं ? मैं हूँ गरीब आदमी और आप राजा। आपका हाथी मैं कैसे खरीद सकता हूँ। मंत्री कहता है- राजन् अब यह कोरी होश में है। वहाँ जो हाथी खरीदने को कह रहा था, वह यह नहीं था। वह कहने वाला तो मदिरा का नशा था। अब इसके नशा नहीं रहा। इसी तरह आप और हम प्रभु की तरह पवित्र हैं। हमें स्वयं अपना परिचय नहीं, यह सब मोह का नशा है। इसलिए अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करना पड़ रहा है।
आचार्य समझाते हैं हे जीव! तू सिद्ध भगवान् के समान ही चैतन्य स्वभावी आत्मा है। देख तू सिद्ध भगवान के समान अमूर्तिक चैतन्य स्वभाव वाला है कि नहीं? देखो, जब यह जीव मरण इस शरीर से निकल कर अन्य गति में जाता है, तब इस शरीर के अंगोपाँग, (हाँथ, पैर, आँख, कान, नाक इत्यादि सर्व चिन्ह) ज्यों के त्यों रहते हैं, किन्तु चेतनपना नहीं रहता। इससे यह स्पष्ट हो जाता है
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