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कहलाया। किन्तु रत्नत्रय तो आत्मा का ही धर्म है, आत्मा से अलग तो रत्नत्रय नाम की कोई वस्तु है नहीं। अतः आत्मा ही तीर्थ कहलाया। यह आत्मा संसारसमुद्र को स्वयं ही नहीं तिरता, किन्तु दूसरों को भी तिराने में निमित्त होता है। अतः वह सर्वोत्कृष्ट तीर्थ है। ___ जीव (आत्मा) और शरीर परस्पर में मिले हुये हैं, जैसे दूध में घी। इसी से मूढ पुरूष शरीर को ही जीव समझते हैं। किन्तु सम्यग्दृष्टि जानता है कि आत्मा ज्ञान गुण वाला है और शरीर पौद्गलिक है। अतः वह शरीर को आत्मा से वैसा भिन्न मानता है जैसा ऊपर से पहना हुआ वस्त्र शरीर से अलग है। जो शरीर से भिन्न आत्मा को जानते हैं, वे अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं। कहा भी है कि जो परम समाधि में स्थित होकर देह से भिन्न ज्ञानमय परम आत्मा को निहारता है, वही पंडित कहा जाता है। जिसने मनुष्यभव पाकर आत्मज्ञान प्राप्त करके रत्नत्रय को धारण किया, उन्हीं का मनुष्य-जन्म सफल हो गया। 'छहढाला' ग्रंथ में कहा है 'धनि धन्य हैं जे जीव, नरभव पाय यह कारज किया।'
मनुष्यभव में तो आत्महित का कार्य अवश्य ही कर लेना चाहिये। इसके बिना सब व्यर्थ है, संसार का कारण है, उसमें कुछ सार नहीं है। रत्नत्रय को ६ पारण करके अन्तर्मुख होकर आत्मा का अनुभव करना ही मोक्ष प्राप्ति का उपाय है। इसी उपाय से अनन्त जीव मोक्ष-सुख को प्राप्त कर चुके हैं, कर रहे हैं और आगे करेंगे।
आचार्य समझा रहे हैं-हे भव्य! तूने अनादि काल से 'शरीर भिन्न है, मैं भिन्न हूँ' इस प्रकार भेदविज्ञान रुपी अमृत के सरोवर में प्रवेश नहीं किया। इसलिये ही शरीर में आत्मबुद्धि होने से नरकादि चारों गतियों में भ्रमण किया है। परन्तु जिनको ‘आत्मा से शरीर भिन्न है। आत्मा ज्ञानी है, शरीर जड़ है' ऐसा भेद ज्ञान है, वे सम्यग्दृष्टि जीव निरन्तर आत्मोत्थ, चिदानन्दमय सुख का अनुभव करते हैं। हे भव्य! सदा राग-द्वेष, मोह रहित शुद्ध आत्मा का चिन्तन करो। यह चैतन्यमात्र ज्ञानज्योति-स्वरूप मैं हूँ, अन्य समस्त परद्रव्य और परभाव मेरे से अत्यन्त भिन्न हैं। जिसने ऐसा परिचय पा लिया, उसको अमृत की बाबड़ी मिल गई। जिसमें मग्न रहने पर फिर संसार का संताप नहीं हो सकता।
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