________________
आत्मा में जो रागादि होते हैं। उनका मूल कारण यह मोह ही है। इसलिए मोह को महामद कहा गया है। जैसे शराबी व्यक्ति को शराब पीने के बाद कुछ होश नहीं रहता, वह कुछ का कुछ समझता है, उसी प्रकार यह जीव मोह के नशे के कारण शरीरादि पर द्रव्यों को अपना मानता है और यही संसार भ्रमण का कारण है। परद्रव्यों से भिन्न आत्मा की श्रद्धा करना निश्चय सम्यग्दर्शन कहलता है और परद्रव्यों को अपना मानना मिथ्यादर्शन कहलाता है।
एक व्यक्ति विदेश गया था। वहाँ उसे आँख में कामला रोग हो गया, जिससे उसे सभी वस्तुयें पीली-पीली दिखने लगीं। जब वह परदेश से लौटा और घर आया तो उसे अपनी स्त्री पीली दिखी। उसने उसे भगा दिया, कहा कि मेरी स्त्री तो काली थी, तू यहाँ कहाँ से आ गई? वह कामला रोग होने से अपनी ही स्त्री को पराई समझने लगा था। इसी प्रकार मोह के उदय में यह जीव कभी-कभी अपनी चीज को पराई समझने लगता है और कभी-कभी पराई को अपनी। यह विभ्रम ही संसार का कारण है। इसलिये ऐसा प्रयत्न करो कि जिससे पाप-का-बाप यह मोह आत्मा से निकल जाये । यही दुनियाँ को नाच नचाता है। मोह दूर हो जाये और आत्मा के परिणम निर्मल हो जायें तो संसार से आज छुट्टी मिल जाये। पर हो तब न । संस्कार तो विषय-भोगों में ही सुख-शान्ति खोजने के बना रखे हैं। शांति को अपने चेतनघन - स्वरूप आत्मा में खोजो, इंद्रिय-विषय संबंधी - भोगों में नहीं । वहाँ इसका साया भी नहीं है। न मालूम क्यों हम लोगों को वहाँ ही अपनी शान्ति के होने का भ्रम हो गया है। यह सब मोह का ही परिणाम है। अतः मोह को छोड़कर सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने का प्रयास करो। जिसका मोह दूर हो जाता है, जो स्वयं को जान लेता है, उसे सब कुछ मिल जाता है ।
एक व्यक्ति धन कमाने विदेश गया। वहाँ उसने बारह वर्ष तक खूब धन कमाया। उसने लौटते समय अपना सारा धन देकर एक बहुमूल्य हीरा खरीद लिया और उसे एक सुन्दर - सी डिबिया में रख लिया ।
एक ठग ने सोचा सेठ बहुत दिनों बाद अपने घर जा रहा है, इसके पास बहुत सारा धन होगा, इसलिये वह ठग भी सेठ के साथ-साथ चलने लगा ।
323 2