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________________ की बलवान कर्मरूपी बेड़ियाँ टूटती हैं। जब यह आत्मा रत्नत्रय को धारण कर समस्त कर्मों से छूट जाता है, तब अनन्तकाल के लिये अनन्तसुखी हो जाता है। परमार्थ से सुखी होने का उपाय यही है कि पर-संबंध को छोड़ा जाये और आत्मस्वभाव का विचार किया जाये। 'रत्नत्रय' ग्रंथ के इस प्रथम भाग में सम्यग्दर्शन का वर्णन किया जा रहा है। सम्यग्दर्शन का अर्थ आत्मलब्धि है। आत्मस्वरूप का ठीक-ठीक बोध हो जाना आत्मलब्धि कहलाती है। संसार का मूल मिथ्यादर्शन है और मोक्ष का मूल सम्यग्दर्शन है। इस जगत में मिथ्यात्व के समान जीव का अहित करनेवाला तथा सम्यक्त्व के समान जीव का हित करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। सभी जीव सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं, पर हमें दुःख क्यों है और वह कैसे दूर हो? इसकी उनको खबर नहीं है। इसलिये वे सुख के लिये झूठी कल्पना करते हैं कि रुपयों में से सुख ले लूँ, अच्छे शरीर में से सुख ले लूँ, विषयभोगों में से सुख ले लूँ। मिथ्यात्व के कारण यह जीव अपनी चैतन्यस्वरूपी आत्मा को नहीं जानता और परपदार्थों को अपना मानता है। परद्रव्यों को अपना मानना मिथ्यादर्शन कहलाता है। “परद्रव्यनतें भिन्न आपमें रुचि सम्यक्त्व भला है।" आचार्य श्री कहते हैं, 'यदि दुःख से बचना चाहते हो तो परद्रव्यों को अपना मानना छोड़ दो।' अज्ञानी संसारी जीव परवस्तुओं को अपनी मानते हैं, परन्तु जब वे उनकी इच्छा के अनुकूल नहीं परिणमतीं तो दुःखी होते हैं। जैसे बच्चे लोग व्यर्थ की बातों में दुःखी होते हैं। एक बालक था। उसके सामने से हाथी निकला तो उसने अपने पिता से कहा कि पिताजी! मुझे हाथी ला दो। अब हाथी तो हजारों-लाखों रुपयों में मिलता है, कैसे ला दें? तो पिता ने महावत को दस-बीस रुपये देकर अपनी दुकान के सामने हाथी खड़ा करवा दिया और कहा- लो बेटा! हाथी आ गया। बालक बोला- पिताजी! इसे खरीद दो और अपने बाड़े में खड़ा करवा दो। पिता ने महावत को कुछ रुपये देकर हाथी को बाड़े में खड़ा करवा दिया और कहा- लो बेटा! हाथी खरीद दिया। बालक फिर बोला- पिता जी! अब इस हाथी को मेरी जेब में रख दो। भला बताओ हाथी को जेब में कौन रख सकेगा? 03 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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