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पश्चात्ताप ही हाथ लगेगा। जिस समय व्यक्ति चूक जाता है और अन्त आ जाता है, तो पश्चात्ताप ही हाथ लगता है। कुछ फल की प्राप्ति नहीं हो पाती।
यह स्वर्ण-जैसा अवसर है। यह जीवन बार-बार नहीं मिलता। इसकी सुरक्षा, इसका विकास, इसकी उन्नति को ध्यान में रखकर इसका मूल्यांकन करना चाहिये। जो व्यक्ति इसको मूल्यवान समझता है, वह साधना पथ पर कितने ही उपसर्ग और कितने ही परीषहों को सहर्ष अपनाता है। मोक्षमार्ग तो वही है जो परीषहजय और उपसर्गों से प्राप्त होता है, और जो उसे धारण करने के लिये तैयार हैं उन्हें वह अवश्य मिलता है। मुक्ति-कन्या वीतरागी का ही वरण करती है। वह रागी की तरफ तो देखती भी नहीं। आचार्य पुष्पदन्तसागर महाराज ने एक काल्पनिक घटना सुनाई थी
भावनगर नाम का नगर है तथा मकरध्वज (कामदेव) वहाँ का राजा है। वह साधारण राजा नहीं है। समस्त देव-देवेन्द्र, नर-नरेन्द्र और नाग-नागेन्द्र आदि देवताओं के ऊपर उसका अप्रतिहत शासन है। उसने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली है। रति और प्रीति नामक उसकी दो रानियाँ हैं और उसके प्रधानमंत्री का नाम मोह है।
एक दिन अपनी सभा में उसने मोह से नूतन समाचार सुनाने को कहा। मोह ने मुक्तिकन्या के रूप-सौन्दर्य का और जिनराज के साथ होने वाले विवाह का अत्यन्त रोचक ढंग से वर्णन किया। जिनराज का प्रथम बार नाम सुनकर उसके मन में आश्चर्य हुआ तथा मन-ही-मन काफी विकल्प हुआ और जिनराज के साथ संग्राम करने का निश्चय कर लिया और जिनराज पर आक्रमण करने चल पड़ा। किन्तु मोह ने समझा-बुझाकर मकरध्वज राजा को रोक दिया। उसने मोह को आदेश दिया कि तुम जिनराज पर चढ़ाई करने के लिये शीघ्र ही समस्त सेना तैयार करके ले आवो।
मकरध्वज की रानियाँ रति और प्रीति ने अपने स्वामी को उदास देखकर चिन्ता का कारण पूछा। सम्राट ने निःसंकोच सारी बात बतला दी और रति से कहा कि तुम मुक्तिकन्या के पास जाकर ऐसा प्रयास करो कि वह जिनराज के प्रति उदासीन हो जाये और अपने विवाहोत्सव पर वरमाला मेरे गले में डाल दे।
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