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रति ने मकरध्वज से कहा-स्वामिन् आपको उचित-अनुचित का कोई विवेक नहीं है। क्या किसी ने कभी अपनी स्त्री से भी दूती का काम लिया है, जो कार्य आप मुझे सौंपने चले हैं?
मकरध्वज ने कहा,कि यह कार्य मैं तुम्हें इसलिये सौंप रहा हूँ कि स्त्रियाँ ही स्त्रियों के प्रति अधिक विश्वासशील देखी जाती हैं। रति ने कहा कि आप ठीक कह रहे हैं, लेकिन आपको मुक्तिकन्या प्राप्त नहीं हो सकती है। क्योंकि जिस प्रकार कौवे में पवित्रता, नारियों में सत्यता, सर्प में क्षमा, नपुंसक में धैर्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार सिद्धकन्या भी तुम्हारी नहीं हो सकती। वह सिद्धकन्या वीतरागी मुनिराजों के सिवाय अन्य किसी का नाम तक सुनना पसन्द नहीं करती। फिर अन्य के वरण करने की तो बात ही छोड़िये। इसलिये मेरी आपसे विनय है कि आप व्यर्थ आर्तध्यान न करें।
जब राजा रानी की कोई भी बात मानने को तैयार नहीं हुआ, तो रति सोचती है कि सर्यवंशी राजा हरिश्चन्द्र को चाण्डाल की सेवा करनी पड़ी. मर्यादा पुरुषोत्तम राम को पर्वतों की कंदरायें छाननी पड़ीं, भीम आदिक चन्द्रवंशी नरेशों को रंक के समान दीनता दिखलानी पड़ी। अपनी बात के निर्वाह के लिये महान पुरुषों ने क्या-क्या अभीप्सित कार्य नहीं किया? ऐसा विचार कर रति भी आर्यिका का वेश बनाकर जिनराज के पास जाने के लिये निकल पड़ी।
जैसे-ही रति निर्ग्रन्थ मार्ग से जा रही थी, अचानक उसकी मार्ग में मोह से मुलाकात हो गई। उसने रति को अपने साथ वापस लौटा लिया। मोह रति को साथ लेकर सम्राट के पास गया और कहा, सम्राट! विचार हीन कार्य ये सम्राट नष्ट हो जाता है, परिग्रह से साधु नष्ट हो जाता है और प्रमाद से चारित्र नष्ट हो जाता है। इसलिये राजा का कर्तव्य है कि मंत्री की सलाह बिना कोई भी कार्य न करे। जिनराज से युद्ध करने के लिये मैंने सेना तैयार कर ली है, आप जरा भी चिन्ता न करें, जीत आप की ही होगी।
मोह की बात सुनकर मकरध्वज बहुत प्रसन्न हुआ, और कहा कि यह काम तुम्हारे अलावा और कौन कर सकता है? तुम ही हमारे सच्चे मंत्री हो। इस राज्य की रक्षा तुम्हें ही करनी है।
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