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का निरोध करना तप है। तप के माध्यम से इच्छाओं का निरोध करने पर ही कर्मों की निर्जरा होती है। वास्तव में समस्त दुःखों और बन्धन का कारण इच्छायें ही हैं।
सुकौशल विरस्त हो गये। लोगों ने बहुत समझाया- 'अरे राजकुमार अभी तुम्हारी कुमार अवस्था है, अभी तुम्हारी शादी को हुये कुछ ही वर्ष हुये हैं, तुम्हारी पत्नी के गर्भ है। पहले उत्पन्न होने वाले पुत्र को राजतिलक कर जाओ, फिर चाहे घर-द्वार छोड़ देना।' सुकौशल कहते हैं कि अच्छा, जो बच्चा गर्भ में है, मैं उसे राज्यतिलक किये देता हूँ। सुकौशल को बंधने की इच्छा नहीं थी तो उनको कोई बन्धन नहीं था । इच्छायें ही तो बंधन हैं। गृहस्थी में क्या बन्धन है? अरे! नहीं, गृहस्थी में बन्धन कहाँ है? केवल इच्छाओं के कारण ही सब फँसे हुये हैं। हमें तो बाल-बच्चों में मोह होने से अपने मोह से ही फँस गये हैं। क्या उम्मीद है कि हम इन बंधनों से निकल पायेंगे? जो-जो व्यवस्था हम सोचे हुये हैं, क्या इनको पूरा करके विश्राम कर लेंगे? देखो, मेढकों को कोई तौल सकता है? नहीं। अरे! वे तो उछल जायेंगे। कोई इधर उछलेगा, कोई उधर उछलेगा। वे तौले नहीं जा सकते। इसी तरह क्या अपने परिग्रह में रहकर अपनी व्यवस्था बना सकते हो? कितनी ही व्यवस्था बन जायेगी, तो कोई नई बात खड़ी हो जायेगी, क्योंकि बात बाहर में नहीं, अन्दर में खड़ी होती है, सो अन्दर उपादान अयोग्य है ही। जब तक इच्छायें समाप्त नहीं होती, तब-तक बन्धन नहीं मिटता अर्थात् जब-तक इच्छायें रहेंगी, तब-तक बन्धन रहेंगे।
प्रभु में और आत्मा में भेद कहाँ है? सब लोग चिल्लाते हैं कि प्रभु और आत्मा में भेद नहीं है। कहते हैं कि "आत्मा, सो परमात्मा", भेद कुछ नहीं है। आत्मा हैं हम और आप और परमात्मा हैं कोई निर्दोष, सर्वज्ञ, शुद्ध, ज्ञानी आत्मा । उनमें और हममें कोई भेद नहीं है। सारा मामला तैयार है, केवल इच्छाओं को निकाल दो। अच्छा, देखो शुद्ध किसे कहते हैं? शुद्ध उसे कहते हैं, जिसमें रंचमात्र भी इच्छायें न हों। इच्छाओं के होने या न होने पर ही दुःख-सुख निर्भर है। अन्य पदार्थों के संयोग में सुख नहीं है, दुःख नहीं है। संसार में देखो तो सभी दःखी-ही-दुःखी नजर आ रहे हैं, सबको कष्ट है। और किसी को यहाँ
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