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कितना ही आराम मिले, फिर भी कष्ट हैं। जितने एक दीन को कष्ट हैं, उतने एक धनी को भी कष्ट हैं। यद्यपि जितनी असुविधायें दीन को हैं, धनी को नहीं है, फिर भी धनी को भी उतने ही कष्ट होते हैं।
अरे! सुविधाओं से सुख नहीं होते और न ही सम्पदाओं से सुख होते हैं। इज्जत से भी सुख नहीं होता। इच्छायें यदि न रहें, तो सुख होता है। तो कैसी भी परिस्थिति आ जाये, अगर इच्छायें कर लीं, तो दुःख हो गया। ये इच्छायें ही बन्धन हैं। यदि मैं इच्छायें न रखू, ज्ञाता-दृष्टा रहूँ, ज्ञानमात्र रहूँ, तो मेरी हानि नहीं है। इच्छाओं से ही हानि है। देखो- हाथी, मछली, भंवरा ये प्रत्येक जीव इच्छाओं के कारण ही बंधन में पड़ जाते हैं, जाल में बंध जाते हैं, शिकारियों के चंगुल में फँस जाते हैं। यदि उनकी इच्छा नहीं होती, तो वे बंधन में नहीं पड़ते। आजकल भी बड़े-बड़े रईस लोग अपनी स्त्री, वैभव इत्यादि को छोड़कर अलग हो जाते हैं, विरक्त हो जाते हैं, क्योंकि उनके इच्छा का बन्धन नहीं रहा। इच्छा तक ही साम्राज्यों से लगाव था। इच्छाओं के समाप्त होते ही वे बडे-बडे साम्राज्य छोड़ देते हैं।
सीता जी अग्निपरीक्षा में सफल हो गयीं तो रामचन्द्र जी हाथ जोड़कर खड़े हो गये, बोले- देवी! क्षमा करो, आपको बहुत कष्ट पहुँचा। चलो, अब महल में चलो। लक्ष्मण ने भी हाथ जोड़े और सब लोगों ने हाथ जोड़े। भला सोचो क्या सीता जी ने मृत्यु से भेंट कराने वाली अग्निपरीक्षा के बाद अपने मन में इच्छा के भाव बनाये होंगे? क्या सीता जी के मोह की प्रवृत्ति हो सकेगी? नहीं। इसी से तो सीता के वैराग्य उमड़ा, सीता जी के लिये कुछ बन्धन नहीं हुआ और वे विरक्त हो गयीं तथा कर्मों की निर्जरा करने के लिये तपस्या में लग गयीं।
आचार्यों ने तप को निर्जरा का कारण कहा है। "तपसा निर्जरा च।" बारह प्रकार के निदानरहित तपों के द्वारा ज्ञानी पुरुष के वैराग्य भाव के कारण कर्मों की निर्जरा होती है। इस जीव को दुःख के हेतु कर्मोदय के समय कर्मफल में लीन होना है। दुःख न चाहने वाले पुरुषों को ऐसा प्रयत्न करना चाहिये जिससे कर्मों की निर्जरा हो जाये। निर्जरा होती है ज्ञानी पुरुष के। जिसको
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