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निर्जरा है। यह आत्मपुरुषार्थ से तप के द्वारा होती है। इसको पाये बिना मोक्षमार्ग नहीं है। सविपाक निर्जरा तो संसारी प्राणियों की प्रत्येक समय हो रही है। परन्तु अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव कभी भी, पर में रुचि होने के कारण, राग-द्वेष, मोह से खाली नहीं होते, इससे हर समय कर्मों का बंध करते रहते हैं।
अज्ञानी के कर्म की निर्जरा हाथी के स्नान के समान है। जैसे हाथी एक दफे तो सूंड से अपने ऊपर पानी डालता है, फिर रज डाल लेता है। वैसे ही अज्ञानी के एक तरफ तो कर्म झड़ते हैं, दूसरी तरफ कर्म बंधते हैं। अज्ञानी के जो सुख या दुःख होता है या शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, परिवार, परिग्रह का संबंध | होता है, उसमें वह आसक्त रहता है, सख में बहत रागी व द:ख में बहत द्वेषी हो जाता है। इस कारण उसके नवीन कर्मों का बन्ध तीव्र हो जाता है। ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव संसार, शरीर व भोगों से वैरागी होता है। वह पुण्य के उदय में व पाप के उदय में समभाव रखता है, आसक्त नहीं होता, इससे उसके कर्म झड़ते बहुत हैं तथा सुख में अल्प राग व दुःख में अल्प द्वेष होने के कारण नवीन कर्मों का बन्ध थोड़ा होता है।
जो अपना सच्चा हित करना चाहता है, उसको अपने परिणामों की परीक्षा सदा करते रहना चाहिये। जीव के भाव तीन प्रकार के होते हैं- अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग । अशुभोपयोग से पापकर्मों का, शुभोपयोग से पुण्यकर्मों का आस्रव व बन्ध होता है, परन्तु शुद्धोपयोग से कर्मों का क्षय होता है। इसलिये विवेकी को उचित है कि अशुभोपयोग से बचकर शुभोपयोग में चलने का अभ्यास करे और अधिक से अधिक शुद्धोपयोग में लीन होने का प्रयत्न करे। ज्ञानी को सदा जागृत और पुरुषार्थी रहना चाहिये।
जैसे कि साहुकार अपने घर में चोरों का प्रवेश नहीं चाहता है, अपनी सम्पत्ति की रक्षा करता है, उसी तरह ज्ञानी को अपनी आत्मा की रक्षा बंधकारक भावों से करते रहना चाहिये व जिन-जिन अशुभ भावों की टेव पड़ गई है, उनको नियम व प्रतिज्ञा के द्वारा दूर करना चाहिये। प्रतिज्ञा व नियम करना अशुभ भावों से बचने का बड़ा भारी उपाय है। आचार्य उमास्वामी महाराज ने सूत्र दिया है-'इच्छा निरोधः तपः।' इच्छाओं
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