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अधीर होने की आवश्यकता नहीं है। वैसे ही पूर्वजन्म में संचित पापों का फल भी भोगना ही पड़ता है, उसमें अधीर होने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा समझकर जो उपसर्ग आने पर अथवा भूख-प्यास वगैरह की तीव्र वेदना होने पर उसे भेदज्ञानपूर्वक शांतभाव से सहते हैं, व्याकुल नहीं होते, उन मुनि के बहुत निर्जरा होती है। जो मुनि समतारूपी सुख में लीन रहते हुये बार-बार आत्मा का संवेदन करते हैं, इन्द्रियों और कषायों को जीतने वाले उन मुनिराजों की उत्कृष्ट निर्जरा होती है।
जैसे पत्थर चाहे बरसों से पानी के मध्य में पड़ा हुआ हो, पत्थर पर शैवाल भी जम जाय, तथापि उसे हथोड़े से फोड़ने पर भीतर सूखा ही निकलता है। उसने पानी के भीतर रहकर भी पानी को स्वीकार नहीं किया, पानी उसके बाहर-ही-बाहर रहा। उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष संसार के समस्त सुख-दुःखोत्पादक सामग्री के बीच में रहता है, उनका कर्मोदय के वश से उपभोग भी करता है, तथापि अन्तरंग विरागता के कारण उन पदार्थों के रागादि के आर्द्रता उसके भीतर प्रवेश नहीं करती, वह उससे सूखा ही निकलता है। यही कारण है कि उसे अपरिग्रही, निर्बन्धक, अबंधक आदि शब्दों द्वारा आचार्यों ने सम्बोधित किया
ज्ञानी मुनिराज घोर उपसर्ग के आने पर उन्हें सहन करते हुये भी, तज्जन्य शारीरिक अंग-भंगादि के क्लेश उठाने पर भी समताभाव से उन्हें सह लेते हैं। वे चिन्तन करते हैं कि यह पूर्व कर्म के विपाक का फल है, पूर्व उपराध | का फल है, इसे समता से भोगना ही श्रेयस्कर है। अतः उससे विचलित नहीं होते। अपने स्वरूप में निमग्न रहते हैं, जिसके फलस्वरूप उनके इन सब कर्मों की निर्जरा ही होती है और वे निज-रस की निमग्नता से कैवल्य को भी प्राप्त करते हैं।
भरत चक्री पुण्योदयवान् गृहस्थ थे। चक्रवर्तित्व सम्पदा के बीच रहते हुये भी उसे कर्मोदयजन्य विडम्बना मानकर उससे विरक्त ही रहते थे। यही कारण है कि अवसर पाने पर उसे त्यागकर दैगम्बरी दीक्षा लेकर अन्तर्मुहूर्त में ही कैवल्य को प्राप्त किया।
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