________________
यात्रा
यहाँ आचार्य सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष को सम्बोधन देते हैं कि हे ज्ञानी पुरुष! तेरे ज्ञानभाव में रहते हुए भी विविध प्रकार के पूर्व में बाँधे हुए शुभाशुभ कर्मों का उदय आयेगा, वह रुकेगा नहीं, और तुझे दोनों प्रकार के कर्म भोगने होंगे। तथापि तू अपने ज्ञानस्वभाव की भूमिका में क्रीडा करता रहा तो तेरे कर्मबन्ध न होगा। तुम कर्मोदयजन्य सुख-दुःख को भोगते हुए भी यदि अपने स्वभाव की भूमिका में रहोगे, तो उसमें रहते हुए भी कर्म के बन्धन से न बँधोगे। पर के अपराध से कोई बन्धन को प्राप्त नहीं होता, स्वापराध से ही बँधता है।
आचार्य कहते हैं, हे ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव! यदि तू राग-द्वेष-मोहरूप परिणमन करेगा, तो ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध तुझे नियम से होगा। हम तुझसे पूछते हैं कि क्या तुम ऐसा मानते हो कि "मैं ज्ञानी हूँ और मेरे कर्मबन्ध नहीं होता है, अतः मैं नाना विषयों को भोगता हूँ, फिर मुझे कोई हानि नहीं है", तो तुम्हारा ऐसा मानना दुर्गति का कारण बनेगा। यह मानना होगा कि तुम
7 मिथ्या अहंकार करते हो। तुम अज्ञानी हो. उसी से शास्त्रों के उक्त कथन का दुरुपयोग कर अपना अहित करते हो। यदि तुम सम्यग्दृष्टि हो, ज्ञानी हो, तो परीक्षा करो। ज्ञानी ज्ञानभाव में ही रमता है, रागादि में नहीं। अतः ज्ञानी के ज्ञानभाव में बसते हुये जो शुभाशुभ कर्म आते हैं, उन्हें वह कर्मदण्ड स्वीकार करता हुआ भोगता है, उसमें राग-द्वेषादि नहीं करता, न उन विषयों में रमण करता है।
भोगोपभोग स्वेच्छापूर्वक भोगते रहो और तुम्हारे कर्मबन्धन न होवे, ऐसा क्या तुम्हारी इच्छानुसार होगा? कदापि नहीं। यह तुम्हारा स्वेच्छाचारिता का अज्ञानजनित कार्य है। जो जीव अपने मोह-क्षोभविहीन शुद्ध ज्ञानस्वभाव में रमण नहीं करता, तथा विषय-कषायों में रमता है और अपने को ज्ञानी सम्यग्दृष्टि मानता है, वह स्वयं अंधकार में है, अपने को धोखा देता है। तुम ज्ञानभाव की मर्यादा में निवास करो। ज्ञान की भित्तियों का उल्लंघन कर यदि रागादि की भूमिका में प्रवेश किया तो ज्ञानावरणादि नाना कर्मों से स्वयं लिप्त हो जाओगे। मिथ्या अहंकार संसार में डुबायेगा। वास्तव में अपने उपयोग को अपने स्वरूप में स्थिर करना ही सबसे कड़ा
cu 261 in